________________ यत्नेनानु मितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः / अभियुक्ततरैरन्यैरन्य थैवोपपद्यते॥७८ कुशल अनुभवी अनुमानों के द्वारा अत्यंत ही सावधानी पूर्वक अनुमान से सिद्ध किया हुआ पदार्थ भी नसे अधिक शक्तिशाली ऐसे अन्य विद्वानों के द्वारा अन्यथा सिद्ध किया जाता है। लंकावतार सूत्र में मांसभक्षण का निषेध किया गया है उसे स्पष्ट करते हुए भी हरिभद्ररचित ‘अष्टक प्रकरण' में कहते है शास्त्रे चाप्तेन वोऽप्येतन्निषिद्धं यत्नतो ननु। लंकावतार सूत्रादौ, ततोऽनेन न किञ्चन / / 79 लंकावतार आदि शास्त्रों में भी बुद्धने मांसभक्षण को स्वीकृत नहीं किया, क्योंकि वे भी उस काल के एक आप्त पुरुष रूप से प्रख्यात थे। उन्होंने भी मांस भक्षण के आचार को अनुपयुक्त ही कहा है। इसिलिए ारतीय सभ्यता में मांसाहार को मान्यता नहीं मिली है। तत्त्वमार्ग में व्यक्ति को प्रवेश करने का कब होता है यह बात श्रीमान् गोपेन्द्र योगीराज कहते है। अनिवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ सर्वथैव हि / न पुंसस्तत्त्वमार्गेस्मि जिज्ञासामपि प्रवर्तते॥० / भगवत् गोपेन्द्र योगीराज कहते है कि सर्वथा पुरुष का प्रकृति से अधिकार जब तक दूर नहीं होता वहाँ क पुरुष को यथार्थ तत्त्वमार्ग में प्रवेश करने की इच्छा नहीं होती है। एक वस्तु सत्य को प्रकाशित करते हुए विद्वज्ञ कालातीत कहते हैं - माध्यस्थ्यमवलम्व्यैव, मैदम्पर्यव्यपेक्षया। तत्त्वं निरुपणीयस्यात्, कालातीतोऽप्यदोऽब्रवीत्॥१ मध्यस्थता को धारण करके, तत्त्व स्वरूप की यथार्थ आलोचना करके तत्त्वज्ञान करनेवालों को वस्तुतत्त्व का निश्चय करना चाहिए ऐसा कालातीत अन्यदर्शनीय विद्वान् कहते हैं। अनेकान्त सिद्धान्तोंका अक्षरश: नवगाहन करते हुए अपने आशयों को उच्चतर रखते हुए भी सभी का समाधान किया। समाहित, समाधित रहने का सदाचार पालते हुए आत्म-प्रौढ़ता से प्रत्येक को सम्मानित रखने का शिष्ट प्रयोग अद्यावधि अक्लिष्ट गिना गया ! ____ दर्शनपक्ष एक ऐसा है जो पारस्परिक प्रीतिभावों को प्रादुर्भूत करने में आज तक विफल रहा है परन्तु आचार्य हरिभद्र का अपने शुभाशयों से सभी के मतों को मान्यता देते हुए सर्वज्ञवाद की सिद्धान्तशाला में अन्यान्य विरोधियों को एकचित्त बनाने का सफल प्रयास रहा है। विचारों का विरोध तोरहता है परन्तु विश्कल्याण में हमारी एकता अनिवार्य है। कारण कि स्याद्वाद् शैली दार्शनिकता को दिव्य चक्षु देती है और परस्पर मैत्रीभाव से रहने की शिक्षा देती है। हरिभद्र दार्शनिक जगत के दिव्यचक्षुवाले शिक्षक बनकर निर्वेर मतों को मान्यता देने | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय | 36 ]