________________ - उदाराशय बनकर अन्यदर्शनों का अपने ग्रन्थ में समुल्लेख:- आचार्य श्री एक महान् श्रुतधर तत्त्ववेत्ता होने पर भी उन्होंने परदर्शनकारों अथवा परदर्शनों का तिरस्कार नहीं किया। जहाँ उन्हें सत्यता, पारमार्थिकता * प्राप्त हुई उसका उन्होंने आदर किया। अन्यदर्शन में भी यदि कुछ पक्षपात रहित एवं सत्य की कसौटी से परीक्षित है तो उसको अपने ग्रंथ में उद्धरण रूप में उद्धृत किये। एक सच्चा दार्शनिक वही हो सकता है जो निर्विरोधी बनकर सत्य को विश्व के सामने आलोकित करता है। आचार्यश्री ने उदारमना बनकर अन्यदर्शनकारों के सिद्धान्तों के श्लोक अपने ग्रन्थों में ग्रंथित किये। जैसे कि योगशतक में अन्यदर्शनकारों ने कायाकृत और भावनाकृत को दोषक्षय कहा है उसे ही जैनदर्शन द्रव्यक्रिया और भाव क्रिया कहता है। कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्कचुण्णतुल्लत्ति। ते चेव भावणए नेया तच्छारसरिस त्ति // 74 क्रियामात्र से किये गये कर्मों का क्षय मंडुक्क के चुर्ण तुल्य है जो निमित मिलने पर पुन: अंकुरित नहीं होता है ऐसा अन्यदर्शनकार कहते है। जैन दर्शनकारों का द्रव्यपुण्य और भावपुण्य वही अन्य दर्शनों का मृन्मयकलश के समान एवं सुवर्णकलश के समान पुण्य दो प्रकार का है जो मात्र नामभेद ही है। एवं पुण्णं पि दुहा मिम्मय कणयकलसोवमं भणियं। अण्णेहिं वि इह मग्गे, नाम विवज्जास भेएणं // 75 बौद्ध दर्शन में भी कायापाती एवं चित्तपाती स्वरूप को कहते है। तह कायपाइणो ण पुण चित्तमहि किच्च बोहि सत्त ति। होति तह भावणाओ, आसययोगेण सुद्धाओ।।७६ बौद्ध दर्शन संस्थापक गौतम बुद्ध बोधिसत्त्व प्राणिओ की स्थिती का वर्णन करते हुए कहते है कि जिस आत्मा ने बोधिसत्व प्राप्त कर लिया है वह संसार में मात्र काया से समारम्भ करता है लेकिन चित्त उसका कीचड़ में कमल की भाँति निर्लेप होता है पतित परिणामी नहीं होता है अर्थात् वह काया से भोगादि क्रिया करता है। लेकिन चित्त उससे परे ही रहता है। इसी को जैन दर्शनकारोने आसक्त-अनासक्त अथवा ब्राह्म अभ्यंतर परिणाम कहा है। परमतत्त्व को कौन प्राप्त कर सकता यह बात महर्षि पतञ्जलि कहते हैं - आगमेनानुमानेन योगाभ्यास रसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञा लभते तत्त्वमुत्तमम्॥७७ आगम, अनुमान एवं योगाभ्यास की रुचि से अर्थात् तीन प्रकार से बुद्धि को संस्कारित जो करता है, वह उत्तम तत्त्व प्राप्त करता है। अतिन्द्रिय पदार्थ अनुमान गम्य नहीं है यह बात भर्तृहरि कहते हैं - [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI / प्रथम अध्याय | 35