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________________ किञ्चिन्नश्यति चैकान्ताद् यथाह व्यास महर्षि // 70 तथाभावी हेतु के विना अर्थात् कार्य के रूप में परिणमनशील कारण के बिना किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है क्योंकि कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है कि कारण के परिणाम से द्रव्य की एक विशेष अवस्था सम्पन्न हो किसी वस्तुकी न तो एकान्तिक उत्पत्ति होती है और न किसी वस्तु का एकान्तिक नाश होता है, इस विषय में महर्षि व्यास की भी सम्मत्ति है। नासतो विद्यते भावो ऽ नाभावो विद्यते सतः। उभयो दृष्टोऽन्तस्त्वनयोऽस्तत्त्वदर्शिभिः / असत् पदार्थोकी उत्पत्ति नहीं होती है और सत् पदार्थों का अभाव नहीं होता है, परमार्थ तत्त्वदर्शी अन्य विद्वानोंने असत् और सत् दोनों के विषय में यह नियम निर्धारित किया है। योगदृष्टि समुच्चय में भर्तृहरि को धीधन विशेषण से विशेषित किया है। न चानुमान विषय एषोऽर्थस्तत्त्वतो मतः। न चातो निश्चय सम्यगन्यत्राप्याह धीधनः॥७२ अन्यदर्शनकार धीधन भर्तृहरि कहते है कि सर्वज्ञ है या नही यह अर्थ परमार्थ रूप से अनुमान का विषय नहीं हो सकता है अतः अनुमान से अर्थ का सम्यग् बोध नहीं हो सकता। “योगदृष्टि समुच्चय' में महर्षि पतञ्जलि को महामति विशेषण से विभूषित किया है। एतत्प्रधाना सच्छ्राद्ध शीलवान योग तत्परः। जानात्यतीन्द्रियानर्थांस्तथा चाह महामतिः॥७३ आगम विशिष्ट बोध से प्रज्ञावान् बना हुआ सश्रद्ध एवं शीलगुण युक्त तथा योगमार्ग में तत्पर पुरुष जो होता है वही अतीन्द्रिय को जानता है ऐसा महामति पतञ्जलि आदि अन्यदर्शनकार भी कहते है। इस प्रकार दार्शनिक विचार पद्धति परस्पर विरोधिनी रही है विरोधिनी पद्धति में अपने विज्ञान को निर्विरोध व्यक्त करने का वैशिष्ट्य आचार्य हरिभद्र सूरि के लेखनी में मिलता है। अपने मल मन्तव्य के विरोधियों को भी इतना विश्वस्त विचार वैभव से अभिव्यक्त किया है कि आचार्य हरिभद्र का हृदय नितान्त निर्वेर भाव से निर्मल दिखाई देता है। ___आचार्य हरिभद्र ज्ञान की गौरवशालिनी गरिमा में इतने निमग्न थे कि निर्दोष जीवन में भी वीतराग विधान का प्रचार करते थे। न किसी के प्रति अनादर, न तिरस्कार, न बहिष्कार अपितु सभी को आत्मप्रियता से अवलोकित करते हुए अपने आत्मानुशासन में अनुभवशील रहते थे यही उनकी समदर्शिता और सर्व के प्रति सम्मानित भाव स्पष्ट होता है। उँचे से ऊँचे दार्शनिक अपने-अपने मत विरोध में थे उनको इन्होंने अनुमत पदों से सम्मानित किये, किसी का भी हम विद्वेष भाव जीवन में न लाए न हृदय में बिठाए यही उनकी सर्वोपरि जीवन लक्षणा स्पष्ट होती है जहाँ अन्य दार्शनिक नतमस्तक हो आ.हरिभद्र की जय-जयकार करते है। . [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII प्रथम अध्याय | 34 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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