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________________ से उत्पन्न शुभ आत्मा के परिणाम वह दर्शन है। जिनागमों की आत्मविचारणा करते हुए परमात्मपरायणता उनके हृदय में प्रबल बनी, परमात्म प्रणीत आगमों के प्रति बहुमान भाव उछलने लगा, स्वयं को धन्यातिधन्य मानने लगे। वैदिक संस्कृति से सलग्न होते हुए भी श्रमण संस्कृति को समादृत शिरोधार्य बनाया और अद्वेष भाव से अनेकान्त मार्ग पर रहने का एक उत्तम आदर्श उपस्थित किया जो प्रशंसनीय है। श्रमण संस्कृति अपने आप में अनेकान्तवाद के आधार पर उच्चतम बनी हुई सभी की समादरणीय रही है, क्योंकि निर्वेरभाव, निर्वृषभाव निर्ग्रन्थों का नैष्ठिक निरूपण रहा है इसी प्ररूपण को आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने जीवन धरातल पर जीवित करने का भगीरथ प्रयास किया है। इसलिए भारत की मुख्य दार्शनिक धाराओं में श्रमण संस्कृति का सुविख्यात चरित संशयहीन बना / चरित ही चरितार्थ करने वाला एक ऐसा अनुशासनात्मक संप्रयोग है जिसका उदाहरण आचार्य हरिभद्रसूरि है। भारतीय संस्कृति श्रमण संस्कृति का शब्दानुशासन, आत्मानुशासन एवं योगानुशासन आदि को विविध रूप से व्यवस्थित करने में विशाल हृदयवाले आचार्य हरिभद्रसूरि ही हमारे समक्ष आते है , जिनका सम्पूर्ण वाङ्मय पर एकाधिकार का शासन समर्थित था। उनका वैदिक संस्कृति से ओत-प्रोत जीवन भी श्रमण संस्कृति से चमत्कृत हो उठा इसमें मुख्य यदि कोई कारण है तो विद्या की तीव्र जिज्ञासा। विद्यावान् अपने जीवन को समयोचित सुपरिवर्तित कर लेता है और . ऐसा ही हरिभद्र के जीवन में दृष्टिसंचार होता है। अन्य दर्शकारों के प्रति सम्मानीय शब्दों का संयोजन :- बहुश्रुत आचार्य श्री हरिभद्रसूरि गुणग्राही गुणानुरागी बनकर हमारे सामने प्रस्तुत हुए है, क्योंकि अपने सिद्धान्तों के विपरीतपक्ष को समर्थन देने वाले भी ऐसे जैनेतर विद्वानों को बहुमान आदर सूचक विशेषणों से अपने ग्रन्थों में निर्दिष्ट किये है। उनके प्रति भी जो विरल सन्मानीय शब्दों का निर्देश किया यह उनकी महनीय संयमशीलता है। बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न आचार्य होते हुए भी उन्होंने गुणवान् प्रज्ञावान् व्यक्तिओं के प्रति गुरुवत् बहुमान आदि प्रदर्शन कर औचित्य का पालन परिपूर्ण रूप से किया है। जो सत्यपरीक्षक ऋजुसाधक होता है वही परवादिओं को आदरसूचक शब्दों से सम्मानित कर अपने हृदय में स्थान दे सकता है। ज्ञानी वही है जो हमेशा अपने आपको नम्र बनाकर फिर ऊँचा उठाने में तत्पर रहता है। स्वयं को किञ्चित् ज्ञात करवाकर अन्यों को विशाल बनाता है। आचार्यश्री ने “शास्त्रवार्ता समुच्चय' आदि अनेक ग्रन्थों में जैनेतर विद्वानों के लिए सूक्ष्मबुद्धि, महामति, महर्षि सत्प्रज्ञ, धीधन आदि विशेषणों का प्रयोग किया है जैसे कि - न तथाभाविनं हेतुमन्तरेणोपजायते। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII IIIIIIII प्रथम अध्याय | 33.
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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