________________ आजीवन समन्वयवाद के समर्थक संचालक एवं प्रयोजक रूप से प्रतिष्ठित रहने का प्रबल प्रयत्न आ. हरिभद्र का दार्शनिक जगत में रहा है जो दिव्य समन्वयवाद का प्रकाश स्तम्भ होकर प्रज्ञा प्रबन्ध का महोत्सव मनाता रहेगा। वैदिक संस्कृति से श्रमण संस्कृति की सजीवता :- सजीव होकर श्रमण संस्कृति के श्रुतधर बननेवाले आचार्य हरिभद्र अपने विगतकाल के वैदिक परंपरा के विख्यात विप्रवर थे। उनका सम्पूर्ण जीवन वाङ्मयी साधना एवं सर्जना में सुचरित रहा। वैदिक संस्कृति से संस्कृत होने के कारण उनके प्रत्येक क्रिया काण्ड, यज्ञ, अनुष्ठान उन्ही के अनुरूप होते थे आत्मवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद की वैदिक दर्शनों के अनुसार शास्त्रार्थ करके सिद्धि करते थे, क्योंकि उनका जीवन ही वैदिक संस्कृति से संयोजित था, तभी अकस्मात् परमात्मा के प्रति द्वेष युक्त उद्गार उनके मुख से निकल पड़ते है। लेकिन वे ही वचन निर्वृष रूप में बदलकर श्रमण जीवन की संस्कृति का साकार रूप देने वाले हरिभद्र के समय में वर्णाश्रम व्यवस्था का विशेष महत्त्व था। ब्राह्मण वर्ग प्रत्येक काल में समाज का नेतृत्व करने में निपुण रहा है हमारी श्रमण संस्कृति का प्राणाधार वर्ग विप्रों का रहा है। अतः ब्राह्मण परिवर्तन को पश्चाताप से नहीं देखता अपितु नवीनता से नित्य नये विचारों एवं आचारों का प्रादुर्भाव करता देश काल की सीमाओं में रहता हुआ अपने आत्मचरित को उज्ज्वल रखता आया है। आ. हरिभद्र का आत्मचरित अद्भुत बनकर इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हुआ उसे आज भी कोई सशङ्कित दृष्टि से देखने का साहस नहीं कर सकता / उनकी ज्ञान आस्था इतनी सर्वोत्तम थी कि वे उस काल के सार्वभौम सर्वज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित थे लेकिन तत्त्वज्ञान की जिजीविषा होने के कारण एक सुविनित विदुषी आर्या की सुप्रेरणा से वैदिक संस्कृति से विमुक्त बनकर श्रमण संस्कृति से संयुक्त हो गये। उनका सम्पूर्ण जीवन श्रमण संस्कृति से चमत्कृत हुआ। आ. हरिभद्र एक महान् उदारवादी श्रमणवर होकर अपनी मौलिकता को मूल्यवती रखने में महान् गुणवान् सिद्ध हुए है। गुणग्राहिता और सिद्धान्त परायणता उनके लिखित सम्पूर्ण वाङ्मय में प्रचुर रूपसे उपलब्ध होती है उनकी श्रमण संस्कृति के प्रति निष्ठा का निखार नित्य नया बनकर आज भी दार्शनिक जगत में दाक्षिण्यवान् का संदेश दे रहा है। ___ दर्शन का अर्थ ही आत्मविचारणा परमात्मपरायणता है / इन पहलुओं पर आचार्य हरिभद्र का सम्पूर्ण जीवन प्रतिष्ठित रहा है। 'सम्यक्त्व सप्ततिका' की टीका में दर्शन शब्द का अर्थ इस प्रकार है “दर्शनशब्देन विलोचन विलोकन परतीर्थिक शासनादीनि कथ्यन्ते, तथापीह इह मोहिनीयकर्म क्षयोपशमशुभात्मपरिणाम-स्वरूपमेव दर्शन'६९ दर्शन अर्थात् परतीर्थिओं के शासन को देखना होता है लेकिन यहाँ सम्यक्त्व विषय में मोहनीय कर्म के क्षयोपशम [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII प्रथम अध्याय | 32 ]