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________________ * आत्मीयः परकीयोवा कः सिद्धान्तो विपश्चिताम्। दृष्टेष्टाऽबाधितो यस्तु युक्तस्तस्य परिग्रहः॥६४ . आचार्य हरिभद्र नितान्त निराग्रही रूप से सिद्धान्त शास्त्रों में प्रगटित हुए है उनकी आत्मीय प्रतिभा का प्रकर्ष पक्षपात रहित का निर्णय लेता रहा है। हठी कदाग्रही पुरूष अपनी युक्ति को जिद पूर्वक खींचता हुआ सहसात्कार से अपनी युक्ति को अपनी आत्मबुद्धि के पास बैठने का संदेश देता है परंतु मध्यस्थ तटस्थ पुरूष की मति जहाँ युक्तियुक्त हो वहाँ स्थिरता बनाती है। .. आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा / पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेत निवेशम् // 65 षोडशक प्रकरण में सर्वोच्च भाषा में विभोर होकर अपने आत्मा के गहन गांभीर्य को प्रस्तुत करते है और कहते है कि हमे निर्वृष, निर्लेश, निर्वेर दृष्टि से जीवन जीने का एक प्रयास प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि अन्य दार्शनिक भी जो वाक्य विन्यास व्यक्त करते है वे भी मूलागमों से संधित है अतः अपेक्षणीय है, अपेक्षावाद अनेकान्त का एक उज्ज्वल आचरण है अपने आत्म सिद्धान्त में विचरण कराने वाला एक विवेक वैभव है, प्रयत्नवान् बनकर उस सत्य का सर्वेक्षण करते रहो, अन्वेषण बढाते रहो, यही स्याद्वाद है जो निर्विवाद तत्रापिच न द्वेष कार्यो विषयस्तु यत्नतो मृग्यः।। तस्यापि न सद्वचनं सर्व सत्प्रवचनादन्यत् // 66 __लोकतत्त्व निर्णय में लौकिक परिस्थियों से ऊपर उठकर एक अलौकिक अणगार संस्कृति को उच्चता से अभिव्यक्त करने का अनूठा आयाम प्रदर्शित किया है। मैं बान्धवों के बन्धनों से, शत्रुओं के शत्रुमयी भावनाओं से भयभीत बनने वाला नहीं हूँ, कोई बन्धू हो अथवा शत्रु हमारे समक्ष हो अथवा परोक्ष में हो परन्तु उनके उच्चारणों का और आचरणों का विधिवत् विचार करके आश्रय लेना चाहिए। उपयुक्तता से स्वीकार करना चाहिए यही हमारी समन्वयवादिता है जैसे आ.हरिभद्र स्वयं इस उद्घोष को लोकतत्त्व निर्णय में प्रकाशित करते है। बन्धुर्न नः स भगवान् रिपवोऽपि नान्ये एकमतोऽपि चैषाम् / श्रुत्वावचः सुचरितं च पृथग् विशेषं वीरं गुणातिशय लोलतयाश्रिता स्मः।६७ योगदृष्टि समुच्चय में परमात्म देशना, अनेकान्त दर्शन की दिव्य धारा है ये धाराएँ काल और परिस्थियों के अनुरूप अनेक ऋषियों, महर्षियों के मुखारविंद से प्रवाहित हुई है परन्तु मूलतः स्याद्वाद सिद्धान्त की वे जड़े ही है क्योंकि स्याद्वाद में सभी का एक साथ समादर है वहाँ ऊँच नीच या अन्य इतर की परिगणना नहीं रही है। यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्तत्कालादियोगतः। ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः / / 68 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII प्रथम अध्याय | 31 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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