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________________ क्रियान्वित किया। समन्वयवादी :- आचार्य हरिभद्र का समन्वय सर्वत्र विश्रुत रूप से समादृत हुआ है। आ. हरिभद्र का एक स्वतन्त्र स्वाधीन समन्वयवाद सभी दार्शनिकों को सुप्रिय लगा। आत्म मन्तव्य की महत्ता को महामान्य रूप से प्रस्तुत करने का महाकौशल हरिभद्रसूरि में जन्मजात रहा था, क्योंकि वैदिक संस्कृति के विद्या-वात्सल्य से उनका मानस मण्डित बना था और वही मण्डित मानस श्रमण संस्कृति में स्नातक बन शास्त्रीय धाराओं में समता को और क्षमता को सन्तुलित रखने में सर्वथा प्रशंसनीय रहा। समन्वयवाद में सभी को सादर सम्मिलित करने का विशाल विचार पूर्ण विवेक समुद्भावित किया, अपने-अपने मत मन्तव्यों से मथित बना हुआ, ग्रसित रहा हुआ, मानस सहसा मुडने में समय लगाता है परन्तु आचार्य हरिभद्र एक साथ समय को लेकर सिद्धांतो को प्रस्तुत करते हुए पूर्ण प्राज्ञता का एक अद्भुत प्रस्ताव प्रस्तुत कर सभी के हृदयों को जितने का प्रयास करते है, क्योंकि आत्म-सन्मान मतान्तरों के महात्म्य में मग्न बनकर अन्यों के मूल्यांकन में प्राय: कातर कार्पण पाया जाता है, परन्तु आचार्य हरिभद्र के मेधा और मानस में उदारतावाद का उच्च ध्येय था, समन्वयवाद का सक्षम संकल्प था अत: वे निर्विरोध प्रत्येक दार्शनिक ग्रन्थों में गौरवान्वित रूप से गुम्फित हुए। उन्होंने भी अपनी दार्शनिकता में दिव्यभावों को दर्शित कर ससन्मान सभी को आमंत्रित किया है। __ अन्यों में आत्मीयता से महोच्च पद पर प्रतिष्ठित करने का शब्द विन्यास शालीन रहा, चाहे वे विरोधी हो, पर उनको निर्विरोध रूप से निरापराधभाव से भूषित करू अपितु दूषित न बनाऊँ, दूसरों पर दोषारोपण का प्रयोग प्राय: दर्शन जगत में तुमुल मचाता रहा है परन्तु हरिभद्रसूरि ने इस चिरकाल के संघर्ष को एक प्रशस्त पुरोवचन से उनको प्रभावित करने का, पूजित करने का उपयोग समन्वयवाद के नाम से समाख्यात किया। “सम्बोध प्रकरण' जैसे महाग्रन्थ में तत्कालित सम्प्रचलित सभी आम्नायों को समभाव में रहने का समुचित सुबोध सम्बोधित किया। सेयंबरोवा आसंबरो बुद्धोवा अहव अण्णो वा। समभावभावि अप्पा, लहइ मुक्खं न संदेहो // 63 अपनी आत्मा को समभाव में समाधिस्थ रखनेवाला नि:संदेह मोक्ष सुख को उपलब्ध करता है। वह यदि श्वेताम्बर हो, दिगंबर हो तथागत बुद्ध का अनुयायी या इसके सिवाय अन्य अन्यतर कोई भी हो, सभी के लिए समभाव में समन्वयवाद में रहने का अधिकार है वह नि:संदेह मोक्ष को प्राप्त करता है। योगबिन्दु में योगशक्ति सम्पन्न बनकर आत्मीयता और परकीयता के भेद से ऊपर उठकर एक महाविज्ञ की उच्चकोटी में आकर सिद्धान्तता का सही स्वरूप समकथित करते है और कहते है कि आँखों को भानेवाला, हृदय में समानेवाला, निराबाध से जीवन में रहनेवाला वह उपयुक्त माना जाता है / उसको अपार आत्मीयता से अंगीकार करते रहना। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIN प्रथम अध्याय 30
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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