________________ उनके प्रतिभा की प्रतिष्ठा स्वरूप ये ग्रन्थ है। ___स्याद्वाद के सिद्धान्तों को उन्होंने जन-जीवन में एवं विबुधजनों में सहज रूप से उजागर किये है तथा * महावीर परमात्मा के उपदेशों से विद्वद्जनों एवं सर्वसामान्य जनों को परिचित कराया। सिद्धान्तों के गूढ रहस्यों को सरल सुबोध रूप में भी भव्य प्राणियों को समझाने की कुशलता इनमें रही हुई थी। जो स्वयं के प्रज्ञाबल को सर्वज्ञ में स्थित करके सरल समन्वयवादी प्रतिष्ठा के प्रतिनिधि हुए और परमात्मा के प्रतिनिधित्व को संभाला। अनेक प्रकार से श्रुतोपासना में तन्मय बनकर जैनशासन के गगनमण्डल में सूर्य की भांति तेजस्वी बनकर सुशोभित हुए। . अनेक आचार्यों का यह समर्थन है कि आज दिन तक ऐसा कोई प्रज्ञावान् पुरुष नहीं हुआ जिन्होंने उनके सम्पूर्ण वाङ्मय को जाना हो। उनका विद्या के प्रति कितना आकर्षण होगा यह उनके द्वारा 1444 ग्रन्थों की रचना से ही ज्ञान हो जाता है। रात-दिन शास्त्र रचना में अपने परिश्रम को विश्रान्ति दी है। यह उनके चरित्र से ज्ञात होता है कि “लल्लिग" नामक श्रावक ने एक मणि उपाश्रय में लाकर रखी थी उसके प्रकाश में रात्रि में उनकी रचनाएँ अनवरत चालू रहती थी इतना परिश्रम एक विद्या पिपासु ही कर सकता है। ___ “विद्यार्थिनः कुतोः सुखम्' इस युक्ति को अपने जीवनमें हृदयंगम कर ली थी। उस समय में अनेक आचार्य दार्शनिक प्रज्ञावान् हुए फिर भी आचार्य हरिभद्र जैसा स्थान कोई नहीं ले सका। . पुन: पुन: उनकी प्रतिभा प्रकर्ष वाङ्मय की विभिन्न धाराओं में धैर्यवान होकर धी-धन को कर्मठता से कर्तव्य परायण बनाते रहे उनका वाङ्मय कौशल विशद रहा है, जो आ. हरिभद्र को शीर्षस्थ सुधी शिरोमणी चरितार्थ करता है। उनका चरित विद्या वैभव से चमत्कृत बन वाङ्मयी सृष्टि को एक स्रष्टा स्वरूप प्रस्तुत करता है। सर्जन और विसर्जन के विधानों से अपना आत्म विशेषपण श्रुतसेवना में समभिरूढ रखने का संकल्प उनके प्रत्येक ग्रन्थ में दृश्यमान रहा है। उनकी ग्रन्थों की पंक्तियों में विषयों का निरूपण नितान्त निराला मिलता है, कहीं दुःसाहस नहीं, दैन्यभरे वाक्य-विन्यास नहीं अपितु स्व सिद्धान्त साधक शब्दों का प्रवाह प्रमाणभूत रहा है चाहे दार्शनिक विषय हो, ऐतिहासिक प्रसंग हो या जन्म-जन्मान्तरीय अवबोध का प्रसंग हों वहाँ पर भी इतने ही निष्णात बनकर निरूपण करने में निष्ठावान् दिखाई देते है। तार्किक जालों के बीच में आत्मआस्था को कहीं भी न तो फँसने दिया है, न उलझने दिया है, क्योंकि उनका स्वयं का जीवन ही विद्यामय विवेक से व्युत्पन्न रहा है। इसलिए उनकी वाङ्मयी साधना सर्वत्र श्लाघ्य रही है। साहित्य की सीमा को सुरक्षित रखा तथा दार्शनिक तत्त्वों को तात्त्विकता से कुशलमय करने का कर्मठपन | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / प्रथम अध्याय | 29