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________________ इस प्रकार नित्य निर्विवाद और निश्चल ऐसे अनेकान्तवाद को सर्वोपरि सिद्धान्तमय बनाने का श्रेय श्रमण संस्कृति को मिला है। आचार्य श्री हरिभद्र ने श्रमण संस्कृति के एक उत्कृष्ट महान् श्रुतधर के रूप में समवतरित होकर सारे संसार के दिग्गज विबुधों को अनेकान्त का पुरस्कार प्रस्तुत कर दिया। यह उनकी समदृष्टि स्याद्वाद अधिकारिता समुपलब्ध होती है जो अनेकान्त संज्ञा से दार्शनिक जगत में दिव्य शंखनाद करती रही है। विद्या वाङ्मय का कर्मठ कौशल :- विश्व वाङ्मय में हरिभद्र एक अद्भुत व्यक्तित्व से एवं वैदुष्य से अपने अस्तित्व की विद्यमानता को प्रतिष्ठित करने में पुरोगामी रहे अपने काल में जितने प्रतिष्ठित ग्रन्थ थे उनका अध्ययन करने का जन्म जात अधिकार मिला था। उस पठन-पाठन की पटुता से अद्भुत लेखक बनने की योग्यता प्रगट हुई। निगमागमों का समुचित समालेखन करने का सुप्रयास स्थिर बनाया। जीवन की प्रत्येक पल श्रुतोपासना की श्रृंखला बनकर युग-युगान्तों तक अविच्युत बनी / स्वकल्याण एवं पर कल्याण की साधक बनी। अज्ञान, अंधकार, वासना, ममत्व आदि प्रपंच से च्युत होकर ज्ञान प्रकाश सद् अनुष्ठानों की आधार बनी। अध्ययन और आलेखन उनके जीवन के दो पहलू थे। सम्पूर्ण वाङ्मय का अध्ययन करने के पश्चात् उनकी आलेखन क्रिया प्रारंभ हुई। उनको जिनवचन से यह पूर्ण ज्ञान हो गया था कि जीवन में ज्ञान अत्यंत आवश्यक है उन्होंने स्वयं ने नन्दीवृत्ति में कहा कि “श्रुतधर्मसम्पत् समन्विता एव प्रायश्चारित्र धर्म / ग्रहण परिपालन समर्था भवन्ति इति तत् प्रदानमेवादौ न्यायमिति। 60 श्रुत धर्म की सम्पदाओं से समन्वित, सुशोभित, संयोजित बना हुआ आत्मा ही प्रायः करके चारित्र धर्म को ग्रहण कर सकता है एवं उसके परिपालन में समर्थ बन सकता अतः प्रथम श्रृंतधर्मप्रदान का न्याय है। उसी प्रकार... “पढमं णाणं तओ दया'६१ प्रथम ज्ञान पश्चात् दया, जब तक दया का ज्ञान नहीं होगा वहाँ तक दया का पूर्ण पालन नहीं हो सकता। "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रियासे मोक्ष होता है। सूत्रकृतांगमें भी ‘अहिंसु विज्जा चरणं पमोक्खे' विद्या और आचरण को मोक्ष का साधन कहा गया है।६२ ज्ञान से संयुक्त क्रिया ही मोक्षफल का साधक बनती है। ज्ञान के बिना मनुष्य का मूल्य पशु तुल्य हो जाता है इत्यादि युक्तियों का चिन्तन करते हुए ज्ञान को अत्यंत कुशलता के साथ आत्मसात् किया। जहाँ तक आत्मा में साहसिकता नहीं आती वहाँ तक कार्य की सिद्धि अप्राप्य है। वाङ्मय के अंत:स्तल तक पहुँचने का उन्होंने पूर्ण प्रयास किया। उनकी कुशलता उनके ग्रन्थों में प्रदर्शित हुई। किसी भी गाथा, श्लोक या ग्रन्थ को उठाकर देख लीजिए उनका सर्वतोमुखी विद्या का कर्मठ कौशल आपको छलकता हुआ सामने आयेगा। ये आजीवन विद्या के विकास में विकसित रहे / अपने दार्शनिक स्वरूप को प्रदर्शित न करके प्रतिष्ठित किया है | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI प्रथम अध्याय
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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