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________________ श्लाघ्या बनी। समदृष्टि को आजीवन लेकर सर्वज्ञ प्रणीत प्रज्ञान को पुरस्कृत रखा और दूसरों को भी सर्वज्ञ विज्ञानसे परिचित बनाने का सक्रियात्मक प्रयोग प्रयोजित कर पुरातनता में आल्हादमयी अभिनवता लाने का अनेकान्तमय भाव प्रस्तुत किया और अपने अभीष्ट अधिकृत ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अन्यान्य मतावलंबियो के विचारों का विधिवत् उल्लेख करके अपनी उदारता प्रगट की, और निरामय भाव से अनेकान्तवाद की विशालता को वाङ्मय में व्यवस्थित किया। सिद्धान्तों की व्यवस्था में अपनी आत्मविशेषता, विद्वत्ता का और साथ में आत्म व्यक्तित्व का अविचल दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हुए स्याद्वाद सिद्धान्त के समन्वित, सन्तुलित सूरिवर के रूप में अपने चरित्र को अवतरित किया। ___ अपने सिद्धान्त के विरुद्ध पक्ष को समर्थन देना अर्थात् उसके पक्ष को समादर देना है यह उनकी महत्ता एवं उदारता का प्रत्यक्ष उदाहरण है। अन्य सम्प्रदाय के भी विद्वान् इसी दृष्टि से आदर देने योग्य है कि वे भी अपनी दृष्टि से संसार वासना को शिथिल और अध्यात्मिक भावना को जागृत करने का प्रयास करते है। आचार्यश्री ने स्थान-स्थान पर परवादियों के मन्तव्यों की स्पष्टता भी दिखाई है जिनका तात्पर्य यह है कि जैनेतर विद्वानों के कतिपय मन्तव्यों में अनेक विनयीजनों का आदर है उनमें उनका बुद्धिभेद न हो। इसलिए उन मन्तव्यों की किश्चित् युक्तता बताने का प्रयास किया गया है। उदाहरणार्थ- “शास्त्रवार्ता समुच्चय" में ईश्वरवाद के विषय में कहा गया है। कर्तायमिति तद्वाक्ये यत: केषाश्चिदादरः। अतस्तदनु गुण्येण, तस्य कर्तृत्व देशना॥५८ ईश्वर कर्तृत्ववाद का कथञ्चित् समर्थन ऐसे लोगों के उपकार की भावना से किया गया है जिनका उस वाद में आदर है और जिन्हें उसी नैतिकता में सहायता मिलती है। इससे स्पष्ट है कि आचार्यश्री दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों में सत्य का अन्वेषण नहीं करते किन्तु जैन दर्शन के अनुसार उसमें कितना सत्यांश है और कितना असत्यांश है यह बताने का प्रयास अथवा असत्यांश बताने पर भी उन दर्शनों के अनुयायिओं में बुद्धिभेद न हो इस बात का भी पूरा ध्यान रखा है। योगबिन्दु में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए समादरणीय समुल्लेख किया है। सर्वेषां योगशास्त्राणा मविरोधेन तत्त्वतः। सन्नीत्या स्थापकं चेव माध्यस्थांस्तद्विदः प्रति॥५९ सभी योग शास्त्रों के ग्रन्थों का पारस्परिक प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिद्वेष दूर करके तत्त्व से अविरोधी भाव को महत्ता देते हुए न्याय युक्त होकर चित्त माध्यस्थ भावों में रखते हुए योगतत्त्व की स्थापना पूर्वक वस्तु तत्त्व के तत्त्वविदों को ग्राह्य लगे ऐसे योग शास्त्रों के “योगबिन्दु” नामक ग्रन्थ की रचना की। अर्थात् किसी योगशास्त्र से विरोध उत्पन्न न हो सभी को ग्राह्य बने इस भाव से इस ग्रन्थ की रचना की। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / प्रथम अध्याय 27
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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