________________ विषयक दृष्टिकोण को भी दर्शित किया है। ___वैदिक संस्कृति में ईश्वरवाद को सर्वोपरि मान्यता दी है। जबकी बौद्ध संस्कृति ने ईश्वरवाद पर अपना स्पष्ट दृष्टिकोण दर्शित नहीं किया। कही-कही पर ईश्वरवाद की विचारणा अवश्य की है। जैन साहित्य ईश्वर को कर्ता रूप में नहीं मानता परंतु सर्वज्ञता स्वरूप देने में सदैव श्रद्धावान् रहा है। महर्षि पतञ्जलि के साथ प्रीतिबद्ध विचार रखते हुए ईश्वरवाद विषयक एकता है। क्लेशकर्म विपाकाशयैः अपरामृष्ट पुरुष विशेष ईश्वरः।७ इसी प्रकार जैन दर्शन ईश्वर विषयक मान्यता ऐसी ही रखता है क्लेश कर्मों के विपाकों से विमुक्त विशेष .. व्यक्तित्व सम्पन्न ईश्वर है वही सर्वज्ञ है। पूर्व मीमांसा के कुमारिलभट्ट जैसे विद्वान् अनादि संसार के विषय में जैनमत के साथ है परन्तु सर्वज्ञवाद के विषय में पृथक् पड़ जाते है। क्योंकि उनका पार्थक्य चित्रण एक अद्भूत है जो पूर्व मीमांसा में कुमारिल भट्ट जैसे विद्वानों ने दर्शित किया है वहाँ पर आचार्य हरिभद्र जैसे अनुभवी आदर्श विद्यावान् व्यक्ति ने सर्वज्ञता की सिद्धी करने में सबलतर श्रेष्ठज्ञान का सदुपयोग कर जिनेश्वर के प्रति अपनी आत्म श्रद्धा को परम पुनीत बनाया है यही दर्शनवाद की दिव्यकथा अन्य मत मतान्तरो से मथित मर्दित होती हुई मूल्यवती रही है जिसमें आचार्य हरिभद्र एक उदाहरणीय अभ्यर्थनीय आचार्यवर है। इसी प्रकार जीव-विषयक, ज्ञानविषयक, स्याद्वाद विषयक इनका दृष्टिकोण दार्शनिकता के रूप से प्रशंसनीय रहा है। इन सभी विषयों को लेकर इनकी काफी विचारधाराएं चली है तथा सत् सम्बन्धी चर्चाएँ भी सुंदर की एकान्त का समादर अनेकान्त की स्वीकृति :- एकान्त अनवरत अकेला पड़ जाता है। क्योंकि उसका स्वयं का दृष्टिकोण सीमित, संकीर्ण ओर स्वयं में परिवेष्टित रहता है, अत: वह सर्वमान्य होने में सफल नहीं होता है। आचार्य हरिभद्र का एकान्तवाद के प्रति नितांत निर्विरोध रहा है फिर भी अनेकान्तवाद ने अपने आपको अच्युत अडिग रखा है। एकान्त के प्रति आक्रोश नहीं किया, परन्तु अनेकान्त के अंगो में एकान्त को भी प्रतिष्ठित कर उसका भी स्वागत किया। __आचार्यश्री ने शास्त्रवार्ता समुच्चय, धर्मसंग्रहणी, षड्दर्शन समुच्चय, योगबिन्दु आदि ग्रन्थों में अनेक विषयों को लेकर प्रचलित दर्शनों के तत्त्वसिद्धान्तों को प्रकाशित करने हेतु जैन सिद्धान्त के सिवाय जैनेतर दर्शनों के पक्ष को संकलित करके विस्तार से उसका प्रतिपादन कर समर्थ तर्कों द्वारा निष्पक्षभाव से उनकी समीक्षा की अनेकान्तवाद सभी के मध्य में रहकर भी अपने आप में अद्भुत अद्वितीय है, क्योंकि इसमें सभी दर्शनों को अपने में समाविष्ट करने की अपूर्व शक्ति रही हुई है। आचार्यश्री ने किसी भी दर्शन पर आक्षेप नहीं किया तथा आतंकवाद से आविष्कृत नहीं बनाया। जबकि समादर देकर अपने ग्रन्थों में स्थान दिया अत: उनकी समदर्शिता [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIN IA प्रथम अध्यायं | 26 )