________________ . मृत्युलोक के महत्त्वपूर्ण विचारित प्रकरणों के अन्त में परलोक के पारदर्शित्व को प्रकाशित करने में आ. हरिभद्र कुशाग्र मेधावी रहे है। परलोक की सिद्धि में शास्त्रों की समाश्रयता लेकर स्वयं के चिन्तन गांभीर्य को गूढतम रूप से गवेषित कर साहित्य के प्रांगण में प्रसारित किये है। यद्यपि पारलौकिक परोक्ष है फिर भी परोक्ष को समक्ष संप्रस्तुत करने में अपनी महाप्रज्ञा का परिश्रम धर्म संग्रहणी में पुरोगामी है। संतस्स णत्थिणासो एग्गंतेणं ण यावि उप्पातो। अत्थि असंतस्स तओ एसो परलोगगामिव्व // 54 सत् वस्तु एकान्त से नाश नही होती है और एकान्त रूप में असत् की उत्पति नहीं होती है अत: परलोक (देवादिक की अपेक्षा से ) सिद्ध है। परलोक के विषय में भी दार्शनिक धाराएँ भिन्न भिन्न रही है परन्तु भिन्नता में भी निर्भयता से परलोक सिद्धि का स्वरूप निष्पादन करने में आ. हरिभद्र नितान्त निपुण रहे है। “योगशतक' में परलोक सिद्धि का स्वरूप समुल्लिखित किया है। जह खलु दिवसब्भत्थं, रातीए सुविणयम्मि पेच्छंति। तह ईह जम्मऽभत्थं सेवंति भवंतरे जीवा॥५५ आचार्यश्री इस गाथा के द्वारा कहते है कि दृढ संस्कार भवान्तर में भी सहचारी बनकर सहज स्वाभाविक विकास को प्राप्त होते है इससे यह भी निश्चित होता है कि परलोक सिद्ध है जो अन्य दर्शन नहीं मानते, जैसेचार्वाक् जीव को परलोकगामी नहीं मानता है। चित्तो भूय सहावो एताओ चेव लाभहरणादी। सिद्धति णत्थि जीवो तम्हा परलोगगामी तु॥५६ इस पक्ष का निरास भी इसके द्वारा शक्य है जिस प्रकार दिन में किया गया अभ्यास रात्रि में स्वप्न में भी देखता है उसी प्रकार इस भव में अभ्यस्त योगदशा भवान्तर में पुनः प्राप्त होती है। इस प्रकार परलोक सिद्धि विषयक प्रमाणों को प्रस्तुत किया। आचार्य हरिभद्र ने इहलोक जीवनी को दर्शनमय बनाने का दार्शनिक दृष्टिकोण दिया। तुम्हारा इस भव का जीवन एक महान् आत्मप्रकाशक बनकर दिव्य गुणों से दीप्तिमान रहता हुआ पारलौकिक परमार्थ पर चलने के लिए सदा कटिबद्ध बन सकता है। यदि दार्शनिकता रोम-रोम में रंजित बन जाय तो चित्त के चेतना तत्त्व में चिन्मय भावों को प्रसारित करता इहलौकिक जीवन की कर्मभूमि को ज्ञान संपन्न बना सकता है। सारी विषमताओं से विपन्नताओं से एवं विसंगतिओं से मुक्त रहने की शिक्षा दार्शनिकता ने दी है। दार्शनिकता एक ऐसी आत्मकला है जो कभी विकल नहीं बनती परन्तु प्रत्येक पल में सफल बनती है। स्वयं के सर्वस्व भावों से विभोर रखती एक अनूठे व्यक्तित्व को संसिद्ध करती सर्वत्र स्वयं को आत्मनिर्भर, स्वाधीन, स्वतंत्र आत्मशासनानुबद्ध रखती है। हरिभद्र एक कर्मठ, कर्मवेत्ता होने के साथ वैदिक एवं अन्यदर्शनकारों की मान्यताओं को मानकर ईश्वर | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / A प्रथम अध्याय 25 )