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________________ अत्रापि वर्णयन्त्येके सौगताः कृतबुद्धयः। क्लिष्टं मनोऽस्ति यन्नित्यंतद् यथोक्तात्मलक्षणम् / / 50 जैनदर्शन के दार्शनिक ने स्याद्वाद को लेकर 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' में आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है। यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च। संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणा // 51 जो ज्ञानावरण आदि विविध कर्मों को करता है तथा उन कर्मों का फलभोग करता है एवं अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि गतियों में गमन करता है और अपने कर्मों को ज्ञानदर्शन चारित्र द्वारा नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है निश्चित रूप से वही आत्मा है जो ऐसा न होकर अन्य प्रकार का हो तो वह आत्मा नहीं हो सकता। जैसे वेदान्तियों और सांख्य का कूटस्थ, नैयायिक, वैशेषिक का विभु या अनात्मवादियों का देह, प्राण, मन आदि किसी अनित्य पदार्थों को आत्मा नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमें कार्य कारणभाव, बन्ध, मोक्ष आदि सुघटित नहीं होते है। अतः स्याद्वाद रूप से आत्मा को नित्यानित्य माना गया है। परलोक सिद्धि :- अनादि निधन आत्मा का विषय बहुत ही विपुल एवं गहन रहा है। हमारे मान्यवर मनीषी हरिभद्र ने आत्मा को परलोक की सिद्धि में इहलोक की प्रसिद्धि में प्रमाणभूत माना है। जन्मजन्मांतरीय संस्कारों से सुसज्जित यह आत्मा पारलौकिक परमार्थ को प्रतिपादित करता प्रयोगवान् देखा जाता है। अदृश्य रहता हुआ भी दार्शनिकों के मति मन्थनों से यह विषय अनेक प्रकार से मुखरित हुआ है, मान्यतावाला बना है। आचार्य हरिभद्र अनेक मान्यताओं का मनन करते हुए, अनुशीलन बढ़ाते हुए नि शङ्क भाव से निर्वृष स्वभाव से आत्मवाद में परलोकवाद का उज्ज्वल अध्यवसाय उपस्थित कर गये / जैसे कि धर्मसंग्रहणी में - जीवो अणदिणिहणोऽमुत्तो परिणामी जाणओ कत्ता। मिच्छत्तादिकतस्स य नियकम्मफलस्स भोत्ता / / 52 जीव अनादि निधन है, अमूर्त है, परिणामी है, ज्ञाता है, कर्ता है और मिथ्यात्व आदि किये गये कर्मों का भोक्ता है। परलोक की सिद्धि में जन्ममरण के रहस्य को तात्त्विकता से तोलते हुए आ. हरिभद्रने शास्त्रावार्ता समुच्चय में एक सुन्दर निर्देशन दिया है पुनर्जन्म पुनर्मृत्युहीनादिस्थानसंश्रय। पुन: पुनश्च यदतः सुखमत्र न विद्यते।।५३ आत्मवाद परलोकवाद से सर्वथा संयुक्त है। जहाँ पर न संशय वाद है, न संदिग्धवाद है, न अनिर्णायकवाद है, क्योंकि समस्त दार्शनिक विचारधाराओं से सुमेल को बढाता, सापेक्षवाद को साकार करता, पारलौकिक परमार्थ को प्रस्तुत करता है। जैन दर्शन का परलोक सम्बन्धी आविष्कार आज भी महत्त्वपूर्ण है। .. | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII TA प्रथम अध्याय | 24
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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