________________ .. जिससे अध्यवसाय स्थिर रहते है वह ध्यान है एवं जो चंचल मन है वह चित्त है। वह चित्त भावना अनुपेक्षा और चिंता स्वरूप है। इस प्रकार उनकी प्रत्येक रचना में उनका व्यक्तित्व चमकता है। योगप्रियता :- स्वयं को सम्पूर्ण विरक्ति में स्थित रखते हुए विद्या विलक्षणता को योग प्रियता से समन्वित बनाते है, अभावों को उच्चरित करते आत्म अस्तित्व में अपनी योग-प्रियता की ध्वनि को झंकृत करते प्रयत्नवान् बनते है। .. हरिभद्र अपनी आत्म कथा व्यथापूर्ण बनाते अंतरङ्ग प्रज्ञा को पुरस्कृत करते हुए कहते है कि योग के अभ्यासमय गुरु उपदेश का मुझे असह्य अभाव मिला साथ ही मेरी स्वयं की उदारता सुगाह्य नहीं रही अपितु संकीर्ण रही अत: गुरु के उपदेश से वंचित रहा, फिर भी योगप्रियता के वशीभूत बना हुआ योगाभ्यास के लिए मेरा यह “योगबिन्दु" एक प्रयत्न है। हरिभद्रसूरि कृत योगबिन्दु की टीका में योगाभ्यास के प्रयत्न को प्रस्तुत करते है। गुरूपदेशो नच तादृगस्ति मतिर्न वा काचिदुदाररूपा। तथापि योगप्रियता वशेन यत्नस्तदभ्यास कृते ममायम्॥४८. इनकी कृतियों में प्रायः भव विरह शब्द भी मिलता है जो उनके व्यक्तित्व में निखार प्रकट करता है। वस्तुत: आज भी इनकी कृतियाँ इनके व्यक्तित्व की परिचायक बनी हुई है। दार्शनिक दृष्टिकोण :- आचार्य प्रवरश्री हरिभद्रसूरि के द्वारा रचित रचनाओं में प्राञ्जल रूप में दार्शनिक दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। उस समय दार्शनिक जगत में एक दयनीय कोलाहल तुमुल रूप में ताण्डव नृत्य कर रहा था। बड़े-बड़े दिग्गज दार्शनिक दिङ्नाथ, नागार्जुन, आचार्यशंकर, मीमांसक, कणाद, अक्षपाद आदि के मत मतान्तर प्रसिद्ध थे। ऐसे समय में आचार्यश्री दार्शनिक दृष्टिकोण में स्याद्वाद का दुन्दुभिनाद लेकर तत्कालिन दार्शनिकों के सामने निर्विरोध समवतरित हुए तथा स्याद्वाद का बोध व्यक्तियों को आदरपूर्वक 'देने का सुप्रयास जारी रखा। विरोधियों को भी विवेक देने का एक विश्वस्त विद्या योग साधा। विरोधियों के साथ वैमनस्य का त्याग करके सौहार्दता एवं सामञ्जस्यता की भावना जागृत करते हुए प्रामाणिक सिद्धान्त के रहस्य उनके सामने प्रदर्शित किये / जैसे कि आत्मवाद, परलोकवाद, कर्मवाद, सर्वज्ञवाद, स्याद्वाद आदि। ____ आत्मवाद :- आत्मवाद के विषय में अनेक दर्शनों ने अपने-अपने मतों को प्रस्तुत किया जैसे कि चार्वाक् दर्शन ने चार भूतों से उत्पन्न शरीर स्वरूप ही आत्मा को स्वीकारा है। धर्मसंग्रहणी के समर्थ टीकाकार आ. मलयगिरीसूरिजी ने इस बात को टीका में स्पष्ट की है जैसे कि “स्यादेतत्पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणभूत समुदयजन्यं चैतन्यं / '49 बौद्धों ने क्लेशयुक्त नित्य मन को आत्मा कहा है उससे भिन्न आत्मा नहीं। इसका निर्देश शास्त्रवार्ता समुच्चय में दिया है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI प्रथम अध्याय | 23 )