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________________ ___ अन्य आचार्यों ने भी अपने शास्त्रों में हरिभद्र को “याकिनी महत्तरासूनु" से समुल्लेख किया है। जैसे कि “याकिनी महत्तरा धर्मपुत्रत्वेन प्रख्यातः आचार्यजिनदत्त शिष्यो जिनभट्टाज्ञावर्ती च विरहाङ्कभूषितललितविस्तरादिग्रन्थ संदर्भ प्रणेता सर्वेषु प्राचीनतमाः। कृति:सिताम्बराचार्य हरिभद्रस्य, धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोः।२६ उपदेशपद में कहा है जाइणिमयहरिआए रइआ ए ए उ धम्मपुत्तेण हरिभदायरिएणं भवविरह इच्छमाणेणं / उपदेशपद // 27 आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रत्येक ग्रन्थ पर “याकिनी महत्तरासूनु" लिखकर साध्वीवर्या को चिरचमत्कृत बना दी यही उनकी हृदय की महान विशालता का प्रत्यक्ष उदाहरण है। विरल विरक्त हरिभद्र मातृ उपकारों से इतने सश्रद्ध बन जाते है कि उन्होंने अपने भवविरहाङ्कित जीवन में एक पुत्रत्व के आदर्श को साहित्य संस्कृति समाज के प्रांगण में प्रतिष्ठित करने का पूज्य भाव प्रदर्शित कर स्वयं सदा-सदा के लिए श्रेष्ठतम आचार्य सम्पूज्य हो गये। माँ सदैव संस्कृति के चत्वर पर सम्पूज्य रही / इस अखण्ड सत्य को अपनी वाङ्मयी वाणी में विशिष्टतर बनाने का क्रम आचार्य हरिभद्र ने विश्व के समक्ष श्रुतरूप से विश्रुत किया। ____ याकिनी-महत्तरा अजन्मदायिनी जननी बनी। जननी बनाने का श्रेय सिद्धहस्त आचार्य हरिभद्र का हृदय था। याकिनी महत्तरा का मानर्स साहित्यधरा पर मुखरित होता हुआ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि माता प्रशंसनीय परम्परा की आकांक्षावाली तो होती है पर स्वयं स्वात्मयश प्रसारित करने में प्रायः प्रशान्त रहती है। प्रशंसा की प्रियता से सदैव विरक्त बनी हुई याकिनी महत्तरा आचार्य हरिभद्र जैसे मनस्वी के मानस की मूर्ति बन गई। ___ अ) कृतित्व में व्यक्तित्व :- आचार्य हरिभद्रसूरि का जीवन विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में विश्व में विश्रुत है। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उनकी कृतियों में प्रकाशित है उनकी कृतियों के आधार पर उनकी परोपकारपरायणता, नम्रता, निरभिमानिता, दार्शनिकता, समन्वयवादिता, उदारता, भवविरहता आदि गुणों से युक्त व्यक्तित्व विकसित रहा है। ___आ) परोपकारपरायणता :- आचार्य हरिभद्रसूरि को मात्र स्वयं का उत्थान एवं कल्याण अभीष्ट नहीं था। वे जीवमात्र का कल्याण करना चाहते थे, उनके अन्तः करण में अनंत संसारी जीवों को पाप, अज्ञान, महामोह, दुखों से मुक्त करने की प्रबल इच्छा तरंगित हो रही थी जो उनके कृतित्व में ज्योर्तिमान् हो रही है। परोपकार परायण होकर उन्होंने अपने व्यक्तित्व को विशाल रूप दिया और कृतित्व को सर्वहित सिद्ध किया। धर्मसंग्रहणि में आचार्य श्री ने एक ऐसी गाथा प्रस्तुत की जो उनके जीवन का परोपकारमय स्वरूप परिचित करवाती है। सपरूवगार ए जिणवयणं गुरुवदेसतोणाउं / आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI प्रथम अध्याय 19
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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