SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वोच्छामि समासेणं पयडत्थं धम्मसंगहणिं // 28 इसी प्रकार “शास्त्रवार्ता समुच्चय' में भी सभी के हित को साधने में शास्त्र प्रयोजन की परोपकारिता ग्राट की है। विशेषकर मन्दमतिवालों के लिए जो महान् बनेगी। प्रणम्य परमात्मानं, वक्ष्यामि हितकाम्यया। सत्वानामल्पबुद्धीनां शास्त्रवार्ता समुच्चय / / 32 आ. हरिभद्रसूरि ने नान्दीहरिभद्रीयवृत्ति में परोपकार ही आत्मोपकार है “परोपकारपूर्वक एवात्मोपकार इति विशेषतस्तत्र'। ब) नम्रता-शिष्टाचारिता :- प्रत्येक रचना में इन्होंने अपने को परमात्मा के चरणों में समर्पित बनाकर ही नमस्कार पूर्वक ग्रन्थ का शुभारम्भ किया है, नमस्कार में हमेशा नम्रता होती है और नम्रता में सफलता उदित बनती है अतः ग्रन्थ के आदि में परम श्रद्धेय योगीनाथ महावीर परमात्मा को सन्मार्ग दर्शक गुरुओं को प्रणाम करके सविनयता के साथ शिष्टाचार का पालन किया है। योगदृष्टि समुच्चय के प्रथम श्लोक में उनकी नम्रता नमित बन रही है। नत्वेच्छायोगतोऽयोग, योगिगम्यं जिनोत्तमम्। वीरं वक्ष्ये समासेन योगं तद् दृष्टि भेदतः॥४९ स) निरभिमानिता :- ग्रन्थ रचना में उन्होंने अपना बड़प्पन अथवा मतिकौशल का अभिमान कहीं भी प्रस्तुत नहीं किया, हमेशा पूर्वाचार्यों गुरु उपदेशो तथा आगमों को अपने नेत्र के समक्ष रखकर ग्रन्थं रचना की, यही बात उनके योगशतक के प्रथम श्लोक से ज्ञात होती है। नमिऊण जोगिणाहं, सुजोगसंदंसगं महावीरं / वोच्छामि जोगलेसं, जोगज्झयणाणुसारेणं // 42 कहीं कहीं तो इन्होंने अपने अहंभाव का इतना त्याग कर दिया कि यह मैं नहीं कहता लेकिन योगविद् तत्वविद् मनीषी कहते है यह बात हमें “सर्वज्ञ सिद्धि के श्लोक से ज्ञात होती है। ' अस्माच्च दूरे कल्याणं, सुलभा दुःखसम्पदः / नाज्ञानतो रिपुः कश्चिदत एवोदितं बुधैः॥४३ इस प्रकार सर्वज्ञो को नहीं स्वीकारने रूप महामोह से कल्याण दूर जाता है और दुःख की सम्पत्तियाँ अनिच्छा से भी आ जाती है अत: प्रज्ञावान् पण्डितों ने कहा है कि अज्ञान रूप महामोह से दूसरा कोई शत्रु नहीं (द) निर्कषायिता :- आचार्यश्री की लेखनी और कथनी इहलौकिक मर्यादाओं में रहकर पारलौकिक पारदर्शी रही है। विषय विसंगत क्षणो में संक्षोभरहित जीवन जीने का अचूक उपाय “समराइच्च कहा'' में दर्शित कर अपनी ज्ञान समन्वयता का स्वरूप स्पष्टकर के निर्कषाय, संबोधमय जीवन जीने का आह्वान किया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII TA प्रथम अध्याय | 20 प्रथम अध्याय
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy