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________________ फिर भी इतना तो अवश्य कहँगी कि यह विषय गवेषणीय अवश्य है। याकिनी महत्तरा के उपकारों को धर्मपुत्र बनकर ग्रन्थो में चिरस्मरणीय बनाया :- साध्वीबर्या याकिनी महत्तरा धर्म पुत्रवती होकर वाङ्य वसुधा पर प्रतिष्ठित हुई है। वह एक बाल ब्रह्मचारिणी आर्या थी। प्रसवधर्म से परामुख थी, तथापि पुत्रवती होने का विधि के विधान को कोई नहीं टाल सकता यह एक सत्य सिद्धान्तमय आचार है, ऐसे उच्च आचारों में पली हुई, निमग्न बनी हुई, धृति से धीमति रही हुई एक धर्मपुत्र को सम्बोधित करती है। ___ मातृधर्म का मौलिकगुण शिक्षा एवं संस्कार है। उस शिक्षा और संस्कार संकाय से सम्पन्न आचार्य हरिभद्र को जन्म देने वाली धर्ममाता याकिनी महत्तरा बनती है। अपनी जन्मदायिनी जननी को हरिभद्रसूरि वाङ्मय भूमिका पर अवतरित करने में अजस्त्र उदासीन रहे पर याकिनी महत्तरा का प्रत्येक ग्रन्थ की प्रशस्ति में ससम्मान उल्लेख करते सदैव स्मृतिवान् बने रहे आ. हरिभद्र। उनके मानस पटल में जिनभट्टसूरि गुरुदेव श्री के रूप में अवश्य थे परन्तु जिस आर्या याकिनी महत्तरा से उपदेश पाया उनका अनहद उपकार वे भूल नहीं पाये, वे स्वयं प्रज्ञावान् थे अतः ज्ञानबल से चिन्तन मनन के पश्चात् उन्होंने निश्चित किया कि आज ये मेरी महोपकारिणी याकिनी महत्तरा के शब्द मेरे कर्णविवर में प्रवेश नहीं होते तो न जाने मेरी क्या स्थिती होति ? मैं कैसे इस अचिन्त्य चिन्तामणि जैनशासन को प्राप्त करता तथा अमूल्य परमार्थ जैनागमों के बोध से बोधित होता यह मेरी उपकारी माँ है। इसने मुझे जैनशासन के गगनमण्डल में धर्मपुत्र बनाने का एक अद्भुत अनूठा कार्य संप्रयोजित किया है, इसके उपकारों से ऋण मुक्त बनना अशक्य है फिर भी मुझे किसी भी तरह इस उपकारी माँ को चिरस्मरणीय तो बनाना ही होगा। आज दिन तक किसी भी आचार्य ने एक आर्या को इतना महत्त्व देकर युगयुगान्तों तक जीवित नहीं बनाया है, लेकिन हरिभद्रसूरि ने अपने हृदयकमल में उस दीर्घदृष्टा ! समयदर्शिता याकिनी महत्तरा को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने एक आर्या को उच्चस्तर मानकर प्रत्येक ग्रंथ के पहले “याकिनी महत्तरासूनु हरिभद्रसूरि रचित' विशेषण से विभूषित बनाकर उस उपकारी माँ को चिरंजीवी बना दी। उन्होंने अनेक स्थानों पर यह आलेखन किया है कि जैन धर्म की प्राप्ति के पश्चात् ही मेरा जन्म हुआ है तथा उसमें निमित्त याकिनी महत्तरा को "धर्ममातेयम्” यह मेरी धर्ममाता है, इस प्रकार स्वयं को धर्मपुत्र मानकर अपनी कृतज्ञता कृतार्थ की है। जैन शासन के एक धुरंधर आचार्य ने एक उपकारी आर्या को अद्यावधि प्रकाशित करके उज्वल यश की भागी बना दी। आचार्य हरिभद्र ने शिष्यहिता नामावश्यकटीका में स्वयं याकिनीमहत्तरासून का उल्लेख किया है। "समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका कृति सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधर कुल तिलकाचार्य जिनदत्तस्य शिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्र।'' 34 [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / प्रथम अध्याय | 18 |
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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