________________ - तृतीय मत - जो हर्मन जेकोबी को अभिमत है आचार्य हरिभद्रसूरि “उपमिती भवप्रपञ्च" कार श्री सिद्धर्षि के धर्मबोधगुरु थे, इस बात में उपमिती की यह प्रशस्ति प्रमाण रुप से है। आचार्य हरिभद्रो मे धर्मबोधकरोगुरु : / प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्ये निवेदितः॥ अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया। मदर्थेव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा // 2 // . इन दो पद्य से यह तो स्पष्ट होता है कि इसमें उल्लिखित हरिभद्रसूरि वही व्यक्ति है जिनके समय का विचार किया जा रहा है। किन्तु उपमितिकार का समय ‘उपमिती' के निम्नोक्त पद्य से वि.की. दशमी शताब्दी सिद्ध होती है। “संवत्सरशतनवके द्विषष्टिसहितेऽतिलचिते चास्याः। जेष्ठे सितपञ्चम्यां पुनर्वसौ गुरुदिने समाप्तिरभूत् // 33 इस श्लोक से यह ज्ञात होता है कि 'उपमिती' की समाप्ति वि.स.९६२ में हुई थी। जेकोबी के मतानुसार यदि श्री हरिभद्रसूरि जी को श्री सिद्धर्षि के साक्षात् गुरु माना जाय तो अत्यन्त प्रामाणिक शक संवत् 699 में 'कुवलयमाला' की समाप्तिकरनेवाले उद्योतनसूरि द्वारा किया गया श्री हरिभद्रसूरि नामोल्लेख असंगत हो जाता है और 858 में श्री हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास के मत का भी विरोध होता है, इसलिए हर्मन जेकोबी के इस तृतीय मत को कोई भी आधुनिक विद्वान् नहीं मानते है। श्री सिद्धर्षि ने अपने गुरु रूप में श्री हरिभद्रसूरि का जो स्मरण किया है वह इसलिए कि उन्हें श्री हरिभद्रसूरि विरचित ललितविस्तरा' वृत्ति से सद्बोध हुआ था। - निष्कर्ष :- धर्मसंग्रहणी के संपादक इतिहासवेत्ता कल्याणविजयगणि ने धर्मसंग्रहणी की भूमिका में तथा शास्त्रवार्ता समुच्चय' की भूमिका के कर्ता जयसुंदरविजयजी आदि विद्वानों ने आ. हरिभद्रसूरि के समय की जो चर्चाएँ एवं प्रमाणभूत व्याख्याएँ दी है उनसे ज्ञात होता है कि आचार्य हरिभद्र लिखित क्षेत्रसमासवृत्ति' का समुल्लेख विशेष सत्य स्पष्ट होता है कि यद्यपि जिनविजयजी द्वारा अंतरंग प्रमाणों से कुमारिल भट्ट वाक्यप्रदीपकार श्री भर्तृहरि एवं बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति के नामोल्लेख पाये जाते है उनसे आचार्य हरिभद्र का समय आठवी शताब्दी तक चला जाता है, परन्तु ये सभी बाते उत्तरकालीन हो जाती है। पूर्वकालीन बात तो यही है कि उनके स्वयं के हाथ से लिखे वार-तिथि-नक्षत्र को मानकर प्रथम स्थान दिया जाय। शास्त्रवार्ता आदि में लिखित ये विद्वान् यदि पूर्वकालीन होते है तो हमे क्या आपत्ति है ? हमारा तो श्रद्धाभूत हरिभद्र द्वारा लिखित स्वयं का समय ही सत्य है। आधुनिक विद्वान् समय पक्ष के विवाद को लेकर काल गणना के कुटिल चक्र में व्यामोहित हो रहे है कुछ भी हो हरिभद्र हो गये है, उनका अस्तित्व उनकी कृतियों में स्पष्ट है, सप्रमाणिक है, उनको समय की अवधियों से संयोजित करने का इतिहास विदों का मार्ग रहा है। मेरा तो यहाँ पर यही मन्तव्य है कि आचार्य हरिभद्र सभी मान्य समय के महापुरुष थे और उनका जीवन अस्तित्व सभी काल में श्रद्धेय रहेगा, | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / प्रथम अध्याय | 17