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________________ बौद्धमत का अध्ययन करने की है। गुरुदेव ने कहा - जो कुलीन शिष्य होता है वह गुरू को छोडकर निरूपद्रव मार्ग पर भी नहीं जाता है, तो फिर जिस मार्ग में उपद्रव हो, उस मार्ग पर कैसे जाया जा सकता है ? मैं तुम्हें बौद्धमठ में जाने की आज्ञा नहीं दे सकता। हंस ने कहा-गुरुदेव ! हम दोनों पर आपका अति वात्सल्य है, इसलिए आप इस प्रकार कहते है। परन्तु गुरुदेव आपका नाम ही मंत्र है, उस मंत्र के प्रभाव से हमारा कुछ भी अहित नहीं होगा। आपकी दिव्य कृपा हमारी रक्षा करेगी। वैसे भी आप हमारी शूरवीरता और युद्ध कौशलता जानते हो समर्थ पुरुषों का दुर्निमित्त क्या बिगाड सकता है। गुरुदेव कृपा करें, और बौद्ध मठ में जाने की अनुज्ञा प्रदान करे। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि उदास हो गये। उन्होंने कहा-वत्स ! तुम्हें हितकारी बात कहना निरर्थक है। तुम्हें जैसा योग्य लगे वैसा करें, “जहा सुक्खं देवाणुप्पिया।” हंस और परमहंस ने गुरुदेव की बात नहीं मानी, हितकारी वचनों की उपेक्षा की। उन्होंने वेश-परिवर्तन किया और “सुगतपुर" की ओर प्रस्थान किया। सुगतपुर पर उस समय बौद्ध राजा का शासन था, वहाँ अनेक बौद्धों की विद्यापीठे थी। हंस और परमहंस ने एक विद्यापीठमें प्रवेश लिया, और बौद्ध आचार्य के पास रहकर बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने लगे। जैनमत के शास्त्रों के प्रति बौद्धाचार्य अल्पबुद्धि से जो-जो दूषण बताते उन सभी दूषणों को अपने आगम प्रमाणों को लेकर सूक्ष्मदृष्टि से तुलना करके उनका त्याग कर और जैन तर्क की कुशलता से बौद्धागम का खंडन करने वाले हेतु वे दूसरे पत्रों पर एकांत में लिख रहे थे उसी समय प्रचंड वायु के वेग से पत्र उड़कर शाला में चले गये। बौद्ध छात्रों ने वे पत्र बौद्धाचार्य को दे दिये। उस पत्र पर अपने तर्क में उदग्रदूषण और जैन संबंधी दूषणों के पक्ष में अजेय ऐसे अकाट्य हेतु देखकर उनके मनमें भ्रम पैदा हुआ और सोचा यहाँ जिनमत का उपासक कोई पढने आया है, वह कौन है, परीक्षा करके उसको जानना होगा, पकड़ना होगा। ___ एक दिन आचार्य ने कुछ छात्रों को अपने पास बुलाकर कहा - भोजनगृह के द्वार पर जिनप्रतिमा का आलेखन करो और उस प्रतिमा के मस्तक पर पाँव रखकर भोजनगृह में प्रवेश करना, जो मेरी आज्ञा को न स्वीकारें वह मेरे पास अध्ययन करने न आये। बौद्धाचार्य की इस आज्ञा से हंस और परमहंस के मनमें आघात लगा और विचार किया कि यह तो स्पष्ट संकट की घडी है। गुरुदेव की अनिच्छा का कारण अब उनके ख्याल में आया, परन्तु अब तो दो ही मार्ग है या तो जिनेन्द्र के उपर पाँव देकर रौरव नरक में जाना या जैन रूप में प्रकट होकर बौद्धों से मरना, इसके सिवाय तीसरा मार्ग नहीं है। उन्होंने शीघ्र निश्चित किया कि गुरुदेव का अविनय किया है। अत: फल रूप में मरना श्रेयस्कर है, किन्तु देवाधिदेव के मस्तक पर पाँव रखकर नरक के भयंकर फल को प्राप्त नहीं करना नरकफलमिदं न कुर्वहे श्रीजिनपतिमूर्द्धनि पादयोर्निवेश।' [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI N प्रथम अध्याय
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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