________________ हंस परमहंस को छोडकर सभी छात्रों ने वैसा किया। उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी, उन्होंने उस जिनप्रतिमा के ऊपर खडी से जनोई का चिन्ह किया उस पर पैर रखकर चल दिये। कुछ बौद्ध छात्रों 'ने उनकी यह प्रक्रिया देख ली और आचार्य को कह दिया। आचार्य ने कहा-प्रज्ञावंत पुरुष देव के मस्तक पर पाँव नहीं रखते, इसलिए उन दो छात्रों ने जनोई का चिन्ह किया वह उचित है। वे दोनों परदेशी है, तुम धैर्य रखो, मैं दूसरे प्रकार से परीक्षा लूंगा। रात्रि के समय में जिस कमरे में हंस, परमहंस दूसरे छात्रों के साथ सोये हुए थे उसके ऊपरी भाग में आचार्य ने मिट्टी के घड़े रखवायें और उन घड़ों को नीचे गिरवाये। घड़े एक के बाद एक फूटने लगे घड़े की खट्खट् आवाज से सभी छात्र जग गये और अपने-अपने इष्टदेव के नाम लेने लगे। हंस परमहंस के मुँह से “नमो अरिहंताणं" सहसा निकल गया / अत: बौद्ध गुप्तचरों ने निर्णय लिया कि ये दोनों जैन है। वे दोनों सावधान हो गये, अविलम्ब विद्यापीठ एवं नगर को छोड़कर भागने लगे। आचार्य ने नगर के बौद्ध राजा को सारी बात बता दी और हंस - परमहंस को पकडकर लाने को कहा। राजा ने सैनिकों को दौड़ाया। उन दोनों ने घुडस्वार सैनिकों को अपने निकट आते देखा, तब हंस ने परमहंस को कहा-तुम अपने गुरुदेव के पास पहुँच जाना और उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके उसका “मिच्छामि दुक्कडम्” कहना। हंस के इस वाक्य से हमें यह बोध मिलता है कि आज्ञा की महत्ता कितनी है, स्वयं हरिभद्रसूरि ने पंचसूत्र की टीका में कहा है-“आज्ञा आगम उच्यते।" "आज्ञा हि मोहविषपरममन्त्र", जलं द्वेषादिज्वलनस्य / कर्मव्याधि चिकित्साशास्त्रं / कल्पपादपः शिवफलस्य, तदवन्ध्यसाद्यकत्वेन // तथा पंचसूत्र के मूल में भी चिरन्तनाचार्य ने आज्ञा का महत्त्व बताया - 'आणा हि मोहविसपरममंतो जलं रोसाइजलणस्स कम्मवाहितिगिच्छासत्थं कप्पपायवो सिवफलस्स।' _____ अर्थात् आज्ञा को आगम कहा है तथा आज्ञा मोहविष विनाशक परममंत्र है, द्वेषादि आग को शान्त करने में जल है, कर्म रोगकी चिकित्सा है, मोक्ष फल देने में कल्पवृक्ष है / इसीसे आज्ञा की विराधना से आत्मा में दोषों की वृद्धि होती है। गुण दूर रहते है और भवांतर में दुर्गति होती है। लेकिन हंसने कहा अभी तुम क्षत्रिय राजा “सुरपाल” के पास जाना। वह राजा शरणागत की रक्षा करेगा। मैं यहाँ खड़ा रहूँगा / बौद्ध सैनिकों को यहाँ रोकूगाँ उनसे युद्ध करूँगा / तू राजा के पास जाना / परमहंस रो पड़ा। हंस के चरणो में प्रणाम कर चल पड़ा, हंस ने बौद्ध राजा के सैनिकों के साथ युद्ध करना शुरु किया। तब तक युद्ध जारी रखना था जब तक परहंस राजा सूरपाल के पास पहुँच न जाय। युद्ध में हंस की मृत्यु हो गई / जैनशासन की वेदी पर अपना बलिदान दे दिया। परमहंस राजा सूरपाल की शरण में पहुंच गया। सूरपाल ने शरण दी। बौद्ध सैनिक भी तब तक सूरपाल के पास आ गये, और बोले परमहंस को हमें सौंप दो। राजा ने कहा - यह मेरा शरणागत है। मैं उसे सौंप नहीं सकता, कुछ भी हो जाए। बौद्ध सुभटों के बहुत आग्रह करने पर राजा ने परमहंस से परामर्श करके कहा-'तुम्हारे बौद्धाचार्य और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय 7 ]