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________________ जान लिया तब गुरु ने कहा अब तुम विशेष आगमों के सार को सुक्ष्मबुद्धि से निरीक्षण करने में प्रवर्तमान बन जाओ। - गुरू की आज्ञानुसार, श्रुतसागर में निमग्न बन गये। श्रुतसाधना से उन्होंने अदृष्ट कर्म, जीवस्थान, जीव के भेद-प्रभेद, गति-आगति, गुणस्थान की प्रक्रिया, अनेकान्तवाद, सप्तभंगी आदि विषयों का जो अन्य सम्प्रदाय में अलभ्य है, वैसा ज्ञान प्राप्त कर लिया और आत्मा में संवेग वैराग्य की भावना तीव्रतम बनती गई साथ ही उनको यह भी स्पष्ट बोध हो गया कि जैनेतर शास्त्र और सिद्धान्त अपने आप में कितने अपूर्ण है और अपरिपक्व है। कितने ही ऐसे अंश है जो प्रमाण की कसौटी पर प्रामाणिक नहीं है। जैनशास्त्रों और सिद्धान्तों में जो तार्किकता, निर्दोषता, श्रेष्ठता, महत्ता है उनका भी उन्हें स्पष्ट ज्ञान हो गया तथा उन सिद्धान्तों पर अत्यंत अहोभाव अन्त:करण में प्रगट हुआ; एक दिन उनके मुख से यह उद्गार सहसा निकल पडे, “हा अणाहा कह हुँता जइ न हुँतो जिणागमो” हमारे जैसे अज्ञानी अनाथों की क्या स्थिति होती जो आज वर्तमान विश्व में जैनागमों का अस्तित्व नहीं होता। परिश्रम, श्रद्धा, निष्ठा, विनय एवं गुरुभक्ति के साथ अध्ययन के फलस्वरूप अल्प समय में ही हरिभद्रमुनि ने जैनागमों में सूक्ष्मतम सिद्धान्तों का रहस्यात्मक, तलस्पर्शी ज्ञान समुपार्जित कर लिया। आचार्य पदाभिषेक :- इन्होंने जैनागमों का विशिष्ट कोटि का ज्ञान पाण्डित्य प्रदर्शन, जन-मनोरंजन, शास्त्रीय विवाद एवं कीर्तिलाभ के लिए अर्जित नहीं किया परन्तु रत्नत्रयी की आराधना द्वारा अपने जीवन को परिशुद्ध एवं आत्मिक उत्थान के लिए किया था, इसलिए उनका पवित्र यतिजीवन, परिपूर्ण योग्यता, दीर्घदर्शिता, वाङ्मय की पराकाष्ठा को देखकर गुरुदेवने उन्हें जिनशासन के उत्तरदायित्वपूर्ण गच्छनायक महान् आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। ____ पश्चात्ताप के रूप में 1444 ग्रन्थों की रचना :- एक दिन आचार्य हरिभद्रसूरि के संसारी भगिनी के पुत्र हंस और परमहंस जो रणवीर, शूरवीर साथ ही युद्धकला में भी पारंगत थे फिर भी निमित्तवश संसार से विरक्त बने हुए अपने मामा हरिभद्र के पास आये, उन्होंने आचार्य श्री को कहा- गुरुदेव हम दोनों गृहवास से विरक्त बने है। गुरुदेव ने कहा - "यदि तुम्हें मेरे प्रति श्रद्धा हो तो विधिपूर्वक दीक्षा ले लो।" हंस और परमहंस ने दीक्षा ले ली। दोनो प्रज्ञावंत शिष्यों को आचार्यदेवने जैनागम पढ़ाये। न्यायदर्शन और वैदिकदर्शन का भी अध्ययन करवाया / बौद्ध दर्शन का अध्ययन करते-करते हंस और परमहंस के मन में विचार आया कि बौद्धशास्त्रों का बोध प्राप्त करने हेतु बौद्ध आश्रम में जाकर बौद्धाचार्य के सानिध्य में अध्ययन करें। दोनों ने अपनी इच्छा गुरुदेव के सामने व्यक्त की। गुरुदेव ने शिष्यों की इच्छा जानने के बाद अपने ज्ञान के आलोक में दोनो शिष्यों का भविष्य देखा और उन्होंने कहा-वत्स ! वहाँ बौद्ध मठ में मुझे तुम्हारा भविष्य अच्छा नहीं लगता, इसलिए तुम वहाँ जाने का विचार छोड़ दो। यहाँ दूसरे भी अपने आचार्य है, विद्वान् है, बौद्ध दर्शन के ज्ञाता है, तुम उनके पास अध्ययन कर सकते हो। हंस ने कहा-गुरुदेव हमारी इच्छा तो बौद्ध आचार्य से ही [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIA प्रथम अध्याय
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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