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________________ देखकर प्रसन्नता से स्तुति करने लगे... वपुरेव तवाचष्टे भगवन् वीतरागताम्। न ही कोटरसंस्थेऽग्नौ तरूभवति शाद्वलः // हे भगवान् आपका शरीर ही वीतरागता को कह रहा है क्योंकि कोटर में अग्नि यदि हो तो वृक्ष हरा-भरा कदापि नहीं रह सकता। इस प्रकार प्रसन्नता से परमात्मा की स्तुति करके, देवताओं के स्वामी इन्द्रों के समूह से पूजित विष्णु के समान समता निधि, साधुओं से सेवित मण्डप में स्थित जिनभट्टसूरि को देखा, देखते ही उनकी कुवासनाओं ने विराम ले लिया। क्षणभर के लिए हतप्रभ बन गये / गुरु ने प्रज्ञा चक्षु से विचार किया कि यह तो वही विप्र है जिनकी शास्त्रों में निपुण मति है, तथा राजमान्य यशस्वी राजपण्डित है जिसने मदोन्मत्त हाथी से राजमार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण जिनमन्दिर में आये और जिनपति को देखकर मद से निन्दनीय चित्तवाले उपहास युक्त वचन बोले थे और आज जिनबिम्ब को आदर युक्त देखकर अतिशय भक्ति से रंजित बने हुए पुराने वचनों को परावर्तित कर बोले है ! उसको ऐसी स्थितिमें अपने आगे देखकर आचार्य श्री ने उसको बुलाया - हे द्विजेश ! हे अनुपमबुद्धि के निधान ! कहो, आपके यहाँ आगमन का हेतु क्या है ? अत्यंत व्यवहार कुशल एवं उच्चकोटि के शास्त्रवेत्ता आचार्य प्रवर ने एक ही दृष्टि में हरिभद्र की प्रखर प्रज्ञा को परख ली। हरिभद्र ने बडी विनम्रता से कहा कि हे गुरुदेव आप मुझे जिन विशेषणों से पुकार रहे है, मैं उसके योग्य नहीं हूँ, क्योकि आर्या से सुना गया जिनवचन उसका भी अर्थ मैं समझ नहीं पाया, तो विपुल जिनशास्त्रों की राशि की तो बात ही क्या ? अत: अब आप मेरे पर कृपा करके मुझे अर्थ प्रकाशित करें। पुरोहित हरिभद्र की बाते सुनकर गुरुदेवने कहा कि - हे विप्र ! यदि आपको इसे समझना है तो इस श्रमण परम्परा से सम्बद्ध होकर तप अनुष्ठान पूर्वक क्रमिक रूप से अध्ययन करना होगा, अन्यथा अध्ययन संभव नहीं है। आपको जैसा उचित लगे वैसा करें, किन्तु शीघ्रता न करें। लेकिन तत्त्वविद्या की जिज्ञासा ने उनके जीवन को ब्राह्मण संस्कृति से श्रमण संस्कृति की ओर आकर्षित कर लिया। दीक्षा :- प्रकाण्ड विद्वान् हरिभद्र मानसिक प्रतिज्ञा का परिपालन करने के लिए तैयार हो गये और गुरु के चरणों में समर्पित होकर श्रामण्य जीवन स्वीकार कर लिया। आचार्यश्री ने संयमव्रत आदि प्रदान कर गाथार्थ बताकर उनकी जिज्ञासा पूर्ण की। एक दिन गुरुदेव हरिभद्र को याकिनी महत्तरा का परिचय देते हुए कहते है कि आगम प्रवीण, यम नियमों की पालक, साध्वी समुदाय की मुकुट शिरोमणि, जगत विख्यात, “याकिनी महत्तरा" मेरे गुरु की बहन है, तब हरिभद्र कहते है कि अनेक शास्त्रों मे पारंगत होते हुए भी इन महत्तरा साध्वीजी ने मुझे मर्यादा में बांध दिया, फिर भी मैं तो अपना अत्यंत पुण्य का योग समझता हूँ कि यह मेरी कुलदेवी के समान माता बनकर मुझे ज्ञानयोग में जोडा। सम्पूर्ण महाव्रत की धुरी को धारण करने में समर्थ ऐसे उन्होंने धर्म का सार इस साधु धर्म को अच्छी तरह | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIVA प्रथम अध्याय | 4 |
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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