________________ पर परमात्मा को देखा, तत्त्वार्थ को नही जाननेवाले विप्र ने उपहास वचन बोले। “वपुरेव तवाचष्टे स्पष्टमिष्टान्नभोजनम्। न हि कोटर संस्थेऽग्नौ तरूभवति शाद्वलः।।"४ आपका शरीर ही मिष्टान्न भोजन की साक्षी रूप में है / यदि कोटर में अग्नि हो तो वृक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता है। उनको यह कहाँ मालूम था कि उनके कथित ये वचन ही भविष्य में बदलने पड़ेंगे। भवितव्यता की बलिहारी है हाथी की इस घटना ने उनको विरोधभाव से भी वीतराग का परिचय करवाया। - दूसरे तीसरे दिन राजमहल के राजकीय मंत्र-विवेचनों को परिपूर्ण करके अपने घर की ओर रात्रि काल में जा रहे थे। जैन उपाश्रय के पास से गुजर रहे थे उस समय एक साध्वी के मधुर स्वर को उन्होंने सुना जो इस प्रकार था। चक्किदुगं हरिपणगं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दुचक्की केसी य चक्की य // श्री आवश्यक नियुक्ति के इस गाथा को सुनकर प्रस्फुरित प्रज्ञावाले, स्थिरप्रतिज्ञावाले नीरव शान्ति युक्त वातावरण में विचारवान् बने हुए उन्होंने चिन्तन किया, लेकिन उसके गहन रहस्य को जान नहीं सके, तब स्वयं विनम्र बनकर उस आर्या की शरण में चल पडे। यद्यपि प्रतिज्ञा का साक्षीभूत कोई नहीं था फिर भी अन्तः करण संकेत कर रहा था कि मैं प्रतिज्ञा से पतित न बनू अतः उसका परिपालन करने हेतु अहंकारी, अभिमानी मन को सुमन बनाना यद्यपि अत्यंत दुष्कर था फिर भी प्रतिज्ञा भंग में स्वयं मन को साक्षीभूत मानकर स्वयं ने ही पराजय स्वीकार करली यह उनकी महानता थी। यह प्रतिज्ञा उनके जीवन में गर्व का कारण न बनकर तत्त्वजिज्ञासा की प्रतीक बनी और उन्होंने आर्या को कहा-कि हे माँ ! “आप बार-बार क्या चक-चक कर रही हो" इसका मुझे समुचित उत्तर दो। याकिनी महत्तरा बहुत ही विचारशील विदुषी थी, समयदर्शी थी। उन्होंने मधुरवाणी में कहा - हे वत्स ! “यह गीले गोबर से लीपा नहीं है जो शीघ्र समझ में आ जाये।" यह सुनकर आश्चर्य से चमत्कृत होते हुए उन्होंने सोचा कि एक तो यह गाथा समझ में नहीं आयी और दूसरा उनके द्वारा दिया हुआ उत्तर भी मेरे पाण्डित्य को पिघलाने जैसा है। अत: वे कहते है कि हे माँ ! तुम्हारे अर्थ को मैं नहीं जान पाया हूँ / अतः मुझे समझाओ। आर्या याकिनी महत्तरा कहती है, ऐसे महान् जैनागमों के अध्ययन की अनुमति गुरुओं से हमें मिली है लेकिन विवेचन करने की नहीं / यदि आप इसका विस्तृत अर्थ जानना चाहते हो तो मेरे गुरुदेव के पास जाओ। हरिभद्र आर्या की विनम्रता, सौहार्दता, प्रशान्तमुद्रा, पवित्र जीवन चर्या आदि देखकर अत्यंत प्रभावित हो गये / आर्या की बात सुनकर विप्र हरिभद्र घर गये, किन्तु उनके मानस मेधा में अनवरत “याकिनी महत्तरा एवं साध्वीगण का जीवन कितना स्वच्छ एवं सुंदर है," यह चिन्तन चलता रहा तथा मेरे लिए यह अत्यंत लाभदायक बनेगा इस प्रकार के चिन्तन में निद्रा रहित सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत की। प्रात: काल की शुभ वेला में एकाग्रचित्त होकर जिनालय में आये और हृदय में समाविष्ट जिनबिम्ब को | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI प्रथम अध्याय