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________________ कर्मवाद की स्पष्ट विवेचनाएँ पूर्यों में भी मान्य हुई है जैसे कर्मप्रवाद आदि पूर्व इसके परिचायक है। अतः कर्ममुक्त होने के उपाय वाचकवर उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र में स्पष्ट किये है - ‘कृत्स्न कर्मक्षयो मोक्षः। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय की भूमिका का नाम मोक्ष है। मोक्ष ही कर्मबन्ध रहित रहनेवाला ऐसा स्थान है, जहाँ कर्म स्वयं सुदूर रहता है। कर्म की परिभाषाओं को, कर्म के स्वरूप को और कर्म पौद्गलता को प्रस्तुत कर कर्मशास्त्र की निपुणता अभिव्यक्त की है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया का परिपूर्ण अध्ययन करके कर्मों का स्वभाव, कर्मों के भेद-प्रभेद आदि का विवेचन चेतोहरा किया है। कर्तृत्वभाव और कर्मभाव परस्पर सापेक्ष रहे है। कर्म और पुनर्जन्म की गहन ग्रन्थियों पर विशेष प्रकाश डाला है। कर्म और जीव के अनादि सम्बन्ध का स्वरूप चित्रित कर कर्म के विपाक को विवेचित किया है। कर्म का नाश कैसे किया जाय, गुणस्थानों में कर्म का स्वरूप, कर्म का वैशिष्ट्य व्यवस्थित रूप से विवेचित किया। - छट्टे अध्याय में योग सिद्धान्तों की विवेचना हुई है। योग अपने आप में निष्पन्न व्युत्पन्न, ज्ञान गुणवाला रहा है, फिर भी इसके उद्गम, उदय एवं आविर्भाव के विषय में काल गणनाएँ हुई है। यह योग शब्द चिरन्तन साहित्य में भी आया है और योग्न क्रिया के विषय में मान्यताएँ, महत्ताएँ प्रज्वलित बनी है। किसी-किसी ने तो चित्र बुद्धि आत्मतत्त्व के संयम को योग कहा है, किसी ने निरोध को योग कहा है। अवरोध और अवबोध का सम्बन्ध घटाकर योग का जन्म सिद्ध किया है। योग सचमुच एक ऐसा मौलिक महान् साधनामय सुमार्ग है, जिसमें निरोध से अवबोध प्रकट होने का अवसर दिया है। ___ हम योग की परिभाषाएँ श्रमण वाङ्मय में भी पढ़ते रहे है। बौद्ध वाङ्मय भी योग की विचारणाओं से भरा पड़ा है वैदिक वाङ्मय योग की उपासनाओं का चित्रण करता रहा है। इस प्रकार योग आर्य संस्कृति का आध्यात्मिक आधार स्तम्भ गिना गया है। योग में श्रमणधारा और वैदिक विचारणाएँ एकीभूत मिलती है। इसीलिए पतञ्जली के योगसूत्रों पर उपाध्याय यशोविजयजी ने टीका लिखी। योग एक ऐसा श्रेष्ठ साधनामय सुपथ है जहाँ एकीभूत होकर रहने का सुअवसर समुपलब्ध होता है। योग को व्यवहार नय से और निश्चय नय से निरूपित करने का निश्चल निर्णय निर्ग्रन्थ वाङ्मय में समुपलब्ध होता है। एक तरफ आध्यात्मिक विज्ञान दूसरी तरफ जीवन व्यवहार का विज्ञान दोनों योग क्रियाओं से सर्वथा सन्दर्भित है। व्यवहार योग की देशनाओं का प्रदर्शन करता, परिपालन करता चलता रहता है। निश्चय आत्मवाद के उच्चतत्त्वों पर अस्खलित रूप से चलता हुआ जीवन प्रगति की परिपाटी परिणत करता है। अतः व्यवहार और निश्चय से भी एकदम अधिगम्य अवबोधित होता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII VIA उपसंहार 477
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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