SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग एक ऐसे अधिकारों को आविर्भूत करता है जो व्यक्ति को आत्मानुशासन में, शब्दानुशासन में सुसंयमित रहने का विधान सिखाता है। योग के अधिकारी वे भी रहे है, जिन्होंने निरोधों को, निग्रहों को, परिग्रहों को परिचित बनाया है। हेय, उपादेय के विज्ञान से विवेचित रखा है। यही लोग कर्मशुद्धि के उपायों का आश्रय केन्द्र है। जिनको योग सूत्रकारों ने योग विषयक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विवेचनाओं से विवेचित कर विबुध जगत को योग विद्या का अनुदान दिया है। योग साधना का महत्त्व हमारे वाङ्मयी वसुधा का कल्पतरु है। इस योग साधना को सुसाधित करनेवाले योगीजन निश्चलता से आत्म निखार लाते हुए निर्बन्ध अवस्था में नित्य अप्रमत्त रहते है। यह अप्रमत्तता योग की उच्च भूमिका स्वरूप है। योग का स्वीकार कर योग के लक्षण, योग की परिभाषाएँ, योग के अधिकारी, योग के साधक तत्त्व, योग के बाधक तत्त्व और योग के सदनुष्ठान चर्चित कर आशयशुद्धि, योग की दृष्टियाँ दिखाते हुए आचार्य एक विशिष्ट योगी रूप में परिलक्षित हुए है। इन योग के प्रायः सभी विषय में आचार्य हरिभद्र ने अन्यदर्शनों का समन्वय दिखाया है, जैसे कि - ‘मोक्षेण योजनाद् योग' - यह योग का एक ऐसा लक्षण है कि इसमें समस्त दर्शनकारों के योग लक्षण का समावेश हो जाता है। क्योंकि प्रत्येक दर्शनकारों का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और वह अकुशलप्रवृत्ति के निरोध से ही संभव है। साथ ही उन्होंने योग के अधिकारी अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति कहकर वैदिक परंपरा में प्रस्तुत चार आश्रमों का समन्वय स्पष्ट दिखाया है। महाभारत, गीता, मनुस्मृति आदि अनेक ग्रन्थों का परिशीलन योगदृष्टि समुच्चय में दृष्टिगोचर होता है। गीता के परिशीलन की छाप हरिभद्र के मानस-पटल पर अंकित हुई है। उन्होंने गीता में स्थित संन्यास शब्द को मान्यता प्रदान करते हुए योगदृष्टि में धर्म संन्यास एवं योग संन्यास सामर्थ्य योग के दो भेदों का उल्लेख किया है यह उनकी समन्वयवादी प्रवृत्ति को ही उजागर करते है। अन्त में आचार्य हरिभद्रसूरि जिनका अपना मौलिक चिन्तन योग की आठ दृष्टियाँ है उसका भी समन्वय पातञ्जल योग-दर्शन के यम-नियम आदि आठ योगांगों के साथ किया। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र के योग-सिद्धान्तों में स्थान-स्थान पर अन्य दर्शनों के योगों का समन्वय दिखाई देता है। __ आचार्य हरिभद्र अन्य दर्शनों के सम्पूर्ण ज्ञाता बनकर उनकी अवधारणाएँ उच्चता से हृदयंगत करते हुए अपनी दार्शनिक धरातल पर अपराजित रहते है। अन्य दार्शनिकों के दृष्टिकोणों को सम्मान स्वीकृत करते हुए अपनी मान्यता का मूल्यवान् मूल-सिद्धान्त प्रगटित करते हुए पराजयता को स्वीकार नहीं करते है और न आत्मविजयता का अभिमान व्यक्त करते है। उनका यह समन्वयवाद श्रमण संस्कृति का मूलाधार बना है। श्रमण वही जो क्षमा को, क्षमता को आजीवन पालता रहे। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII IIA उपसंहार 478
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy