________________ बताकर यह सूचित किया है कि आचार के द्वारा ही आत्म-संयम की प्राप्ति होती है तथा आत्मज्ञानी ही आचारों का सुसमाहित बनकर पालन कर सकता है, जिससे सर्वश्रेष्ठ मोक्षपद की प्राप्ति भी शक्य है। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि आचार ही मोक्ष उपाय का साधन है तथा प्रवचन का सार भी है। अतः अन्य दर्शनों के आचारों की अपेक्षा जैन दर्शन के श्रमण-श्रमणियों, श्रावक-श्राविकाओं के लिए कठोर कष्ट से भरपूर आचारों का प्रतिपादन अपने ग्रन्थों में किया है। वर्तमान युग में आचार चुस्तता का पालन अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि भौतिकवाद के युग में अपने जीवन को निर्मल, स्वच्छ एवं उज्वल बनाने के लिए यह एक सुंदर उपाय है। ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है। क्योंकि यह बात उन्होंने अपने जीवन में अनुभव की थी। उनका स्वयं का जीवन याकिनी महत्तरा के आचार शुद्धि को विनय, विवेकशीलता को देखकर ही परिवर्तित हुआ था। अतः उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार को भी विशेष महत्त्व प्रदान किया है। ___ कर्म क्रियाओं से परिभाषित बनता है। स्वरूपता में ढलता है, अर्थात् क्रियाओं से ही कर्म स्वरूपवान् रहता है। कर्म स्वरूप स्थिति में रहता हुआ भी पौद्गलिकता परिणाम में ढला हुआ, पला हुआ जडवत् स्वीकारा गया है। इसीलिए वंध की प्रक्रिया जटिल बनती है। क्योंकि स्वबोध से शून्य है, अतः जैन दर्शनकारों ने कर्म को स्वभाववान् मानकर भी चेतनाशून्य गिना है। यही कर्म भिन्न-भिन्न नाम रूप को धारण करता आठ प्रकार के आकारों में परिगणित हुआ है। इस प्रकार कर्म भेदों से, प्रभेदों से इतना विस्तृत बन गया है कि आत्मा जैसे चैतन्यवान् को भी आच्छादित कर बैठा है। इसी महत्त्वपूर्ण कर्म सिद्धान्त की मीमांसा पंचम अध्याय में दी गयी है। मूर्त का अमूर्त पर उपघात यह विधिवत् हमें मिलता है, क्योंकि कर्तृत्व भाव और कर्मभाव परस्पर सापेक्ष है। इनकी सापेक्षता की चर्चा कर्म मीमांसाओं में वर्णित मिलती है। यही कर्म जडवत् होता हुआ भी जन्मान्तरीत संगति का त्याग नहीं करता है। इसीलिए जीव और कर्म की अनादि संगति शास्त्रों में वर्णित है और कर्म विपाक जैसे अंगसूत्रों का उदय हुआ। __शास्त्रकार भगवंतों ने कर्म बन्ध के प्रतिपक्ष स्वरूप को भी सुवर्णित कर जीव को सावधान बनाया है। अनेक उद्यमों से, उपायों से कर्मबन्ध रहित रहने का निर्देश दिया है। और अन्त में सर्वथा कर्मबन्ध रहित रहने का उपदेश और उदाहरण देकर सत्यता को स्पष्ट किया है। कर्म को सर्वथा समाप्त करने में गुणस्थानों की गणना की गई है। उसमें कर्म स्थितियों पर, परिस्थितियों पर पुनः पुनः विचार कर, कर्म के स्वामीपन का, कर्म के विशिष्टपन का विवेचन आचार्य हरिभद्रने किया है। आचार्य हरिभद्र का व्युत्पन्न वैदुष्य कर्मवाद की मीमांसा में विशेष रहा है। उन्होंने ‘समराइच्च कहा' 'कर्मस्तववृत्ति' आदि में कर्मवाद को पुष्ट किया है। इस प्रकार कर्म की भूमिका जीव के साथ शाश्वत है / इसे जैन दर्शन ने स्वीकार की है और बन्ध मुक्त के उपायों का अन्वेषण कर उपादेय तत्त्वों की विचारणाएँ विविध भांति से कर्मग्रन्थों में मिलती है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII IA उपसंहार | 476]