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________________ वैशेषिक मत - वैशेषिक मत में दो ही प्रमाण है। प्रमाणं च द्विधामीषां प्रत्यक्षं लैङ्गिक तथा वैशिषिकमतस्येष संक्षेप परिकीर्तितः // 41 वैशेषिक लोग प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते है। प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार का है। इन्द्रियज और योगज। इन्द्रिय - श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों और मन के सन्निकर्ष से होनेवाला इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है - निर्विकल्पक और सविकल्पक। वस्तु स्वरूप की सामान्य रूप विचारणा करनेवाला ज्ञान निर्विकल्पक है। यह केवल सामान्य या मात्र विशेष को ही विषय नहीं करता। इसमें सामान्य की तरह विशेष आकार का भी भान होता है। इस तरह निर्विकल्प में सामान्य और विशेष दोनों का भान होने पर भी यह सामान्य है यह विशेष है; यह इसके समान है तथा इससे विलक्षण है, इस तरह सामान्य और विशेष का पृथक्-पृथक् ज्ञान नहीं होता है। इसमें सामान्य तथा विशेष सम्बन्धी अनुगत धर्म तथा व्यावृत्त धर्मों का परिज्ञान नहीं होता है। यही कारण है यह घड़ा है' इत्यादि शब्दात्मक व्यवहार नहीं है। सविकल्पक प्रत्यक्ष सामान्य और विशेष का पूरापूरा पृथक्करण करता है। _ 'यह उसके समान है यह उससे विलक्षण है। इस रूप से अनुगत और व्यावृत्त धर्मों का जाननेवाला आत्मा को इन्द्रियों से सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। योगज प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है - एक तो युक्त योगियों का और दूसरा वियुक्त योगियों का। युक्त योगि - समाधि में अत्यन्त तल्लीन एकाग्रध्यानी योगियों का चित्त योग से उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट धर्म के कारण शरीर से बाहर निकलकर अतीन्द्रियों पदार्थों से संयुक्त होता है। इस संयोग से जो उन युक्त-ध्यान मग्न योगियों को अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होता है उसे युक्तयोगि प्रत्यक्ष कहते है। वियुक्त योगी - जो योगी समाधि जगाये बिना ही चिर कालीन तीव्र योगाभ्यास के कारण सहज ही अंतीन्द्रिय पदार्थों को देखते है, जानते है वे विमुक्त कहलाते है। इन पुराने योगियों को दीर्घकाल के योगाभ्यास से ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिससे वे सदा अतीन्द्रिय पदार्थों को देखते है। उन्हें इसके लिए किसी समाधि आदि लगाने की आवश्यकता नहीं होती। इन विमुक्त समाधि में लीन न होकर भी विशिष्ट शक्ति रखनेवाले योगियों को आत्मा-मन इन्द्रिय पदार्थ के सन्निकर्ष से दूर देशवर्ती अतीत और अनागत कालीन तथा सूक्ष्म परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह वियुक्त योगि प्रत्यक्ष है। यह उत्कृष्ट योगियों को ही होता है। योगिमात्र को हो ऐसा नियम नहीं है। अनुमान - लिंग को देखकर जो अव्यभिचारी-निर्दोष ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अनुमिति कहते है। यह अनुमिति जिस परामर्श-व्याप्ति-विशिष्ट-पक्ष धर्मता ज्ञान आदि कारक समुदाय से उत्पन्न होती है। उस अनुमिति करण को लैंगिक अनुमान कहते है। यह अनुमान कार्य-कारण आदि अनेक प्रकार का होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIII सप्तम् अध्याय 461)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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