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________________ को उत्पन्न करता है। अतः वह अनुमान है। इन दो व्याख्याओं में पहली व्याख्या ही बहुत से अध्ययन आदि आचार्यों को मान्य है। इन अनेक व्याख्याओं के भेदों के जाल में शिष्य की बुद्धि उलझ न जाय, वह भटक न जाए इसलिए ग्रन्थकार स्वयं अन्य व्याख्याओं की उपेक्षा करके त्रिविध हेतुओं का विषय बताने के लिए पूर्ववत् आदि पदों की व्याख्या करते है। उपमान लक्षण - प्रसिद्ध अर्थ सादृश्य से अप्रसिद्ध की सिद्धि करना उपमान प्रमाण है। जैसे गौ के समान गवय होता है। प्रसिद्ध अर्थ के सादृश्य से साध्य की सिद्धि उपमान है। यह न्याय दर्शन का उपमान सूत्र है। यहाँ भी यतः पद का अध्याहार करना चाहिए। अतएव प्रसिद्ध वस्तु गौ के साधर्म्य सादृश्य से गवय में रहनेवाले अप्रसिद्ध संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का साधन-प्रतिपत्ति यतः जिस सादृश्य ज्ञान से होती है वह सादृश्य ज्ञान उपमान प्रमाण कहलाता है। (4) आगम प्रमाण - आप्त के उपदेश को शाब्द-आगम प्रमाण कहते है। इस तरह चार प्रकार का . प्रमाण होता है। सांख्य मत - सांख्य मत में तीन प्रमाण ही मान्य है। मानत्रितयं चात्र प्रत्यक्षं लैङ्गिकं शाब्दम्। सांख्यमत में प्रत्यक्ष अनमान तथा आगम ये तीन प्रमाण है। प्रमाण - अर्थोपलब्धि में जो साधकतम कारण होता है उसे प्रमाण कहते है। प्रत्यक्ष - निर्विकल्पक श्रोत्रादि वृत्ति को प्रत्यक्ष कहते है। श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियाँ है। श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति-परिणमन व्यापार को श्रोत्रादिवृत्ति कहते है। सांख्य विषयाकार परिणत इन्द्रियों को ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानते है। नाम, जाति, कल्पना से रहित वृत्ति निर्विकल्पक है। ईश्वर कृष्ण ने प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार किया है। प्रत्येक विषय के प्रति इन्द्रियों के अध्यवसाय व्यापार को दृष्ट प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है। पूर्ववत् - शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट के भेद से तीन प्रकार का अनुमान है। (1) पूर्ववत् - नदी में बाढ़ देखकर ऊपरी प्रदेश में मेघवृष्टि होने का अनुमान करना पूर्ववत्। (2) शेषवत् - समुद्र के एक बूंद जल को खारा पाकर शेष समुद्र को खारा समझना तथा बटलोइ में पकते हुए अन्न के एक दाने को हाथ से मसलकर शेष अन्न को पका हुआ या कच्चा समझना, शेषवत्। (3) सामान्यतोदृष्ट - जो सामान्य रूप से लिङ्ग को देखकर लिङ्गी का अनुमान किया जाता है वह सामान्यतोदृष्ट है। जैसे बाहर तीन दण्डों को देखकर भीतर परिव्राजक है वह ज्ञान करना। अथवा लिङ्ग और लिङ्गी के सम्बन्ध को ग्रहण कर लिङ्ग से लिङ्गी का अनुमान करना अनुमान प्रमाण है। यही सांख्यों का अनुमान का सामान्य लक्षण है। आप्त और वेदों के वचन शाब्द प्रमाण है। राग द्वेष आदि से रहित वीतराग ब्रह्म सनत्कुमार आदि आज नहीं है और श्रुति अर्थात् वेद इन्हीं के वचन-आगम शब्द है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII सप्तम् अध्याय 1460
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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