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________________ चार्वाक् दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों ने कर्म को मान्यता प्रदान की है। संक्षेप में कुछ विरोध विषमताओं को छोड़कर सभी दर्शन कर्म-सिद्धान्त को स्वीकृत करते है। - महर्षि व्यास ने गीता उपनिषद् में कहा है - 'कि कर्मः किं अकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।' महर्षि व्यास के ये उद्गार कर्म की कसोटी के है। कर्म किसे कहना, अकर्म किसे कहना इस विषय में कविवर भी मुग्ध है। इसलिए मुग्धता का अपर नाम कर्म है। जो जीव को जड़ावस्था में जकड़ देता है। वैदिक दर्शन कर्म के विषय में बहुत ही सुंदर एक परिभाषा देता है। कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि / '31 ऐसी एक मान्यता है कि कर्म का उदय ब्रह्म से ही सम्भवित है। कर्म जीवों के भावों को उत्पन्न करनेवाला विसर्ग नाम से संज्ञित हुआ है।३२ अतः यह मान लिया जाता है कि कर्म त्याज्य भी बनता है, ग्राह्य भी होता है और ज्ञेय भी माना जाता है। जो ज्ञेय बनता है वही अभिधेय संज्ञा का धारक होता है। इसलिए कर्म-मीमांसा अनादि काल से आलोचनीय रही है। अंगीकार्य भी हुई है, क्योंकि कर्म बिना जीवन शून्य जैसा प्रतीत होता है। अतः कर्म को करते-करते सौ-सौ वर्षों तक जीवन जीने का अधिकार वैदिक महर्षियों ने मान्य किया है। उन्होंने तो यहाँ तक भी कह दिया है कि कर्म करने का जन्मजात अधिकार मनुष्य को मिला है। उस कर्म विपाक में तुम फल आकांक्षा रहित रहनेवाले बनो। केवल कर्म दायित्व पर अटल रहने की योग्यता तुम्हारे जीवन में शाश्वती रहे। इस प्रकार कर्म सम्बन्धी विचारणाएँ वैदिक दर्शन में उपलब्ध होती है। ___बौद्ध दर्शन भी कर्म के प्रति अपेक्षित रहा है। उन्होंने भी कर्म-विपाक का सुन्दर सुखद विवरण अपने बौद्ध साहित्य में प्रसारित किया है। स्वयं बुद्ध ने भी कर्म फल की सत्यता को शिरोधार्य कर स्वीकृति दी है। सांख्य दर्शन में भी कर्तृत्व भाव का समुल्लेख करते हुए निर्लिप्त रहने का निर्देश दिया है। जलकमलवत् जीवन जीवित रखते हुए कर्म करने का संकेत दिया है। कर्ता रहकर अकर्ता अपने आप में स्वीकार्य करना ऐसी सुंदर परिभाषा सांख्य दर्शन के सिवाय अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। __पूर्व मीमांसाकार कर्म को ही महत्त्व देते हुए स्वर्ग काम की शुभेच्छा रखते हैं। अतः कर्म भारतीय दर्शन में एक अनुपम शैली से वर्णित मिलता है। भारतीय दर्शनवाद, आत्मवाद, परमात्मवाद और कर्मवाद को कोटि-कोटि वचनों से समलंकृत किया गया है। कर्म का स्वरूप - बौद्ध मतानुसार विश्व के कार्य में कर्म ही कारणभूत है। जीव के पूर्व जन्म के अस्तित्व में किये गये पुण्य-पाप भाव ही वर्तमान की जीवदशा निश्चित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति आज जो सुखदुःख का वेदन करता है वह उस-उस फल का कारण है। ऐसा स्वयं बौद्ध ने कहा है - पूर्वकृत कर्म के परिपाक से कर्म के फल की सुखादिरूप वेदना होती है। एक बार जब स्वयं बौद्ध भिक्षा के लिए जा रहे थे तब उनके पैर में एक कांटा गड़ गया। उस समय उन्होंने कहा था कि - 'हे भिक्षुओं आज से एकानवे कल्प में मैंने शक्ति छुरी से एक पुरुष का वध किया था उसी कर्म के विपाक से आज मेरे पैर में कांटा लगा है।'३३ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / / सप्तम् अध्याय | 453)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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