________________ सम्बोधित किया गया है। भगवद्गीता में इसके लिए सम् उपसर्ग के साथ सिद्धि शब्द संसिद्धिशब्द का प्रयोग हुआ है। यथा-कर्कणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः / अर्थात् कर्तव्यानुष्ठान से भी मोक्ष बताया है। किन्तु गीता में अन्यत्र ‘ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुनः' कहकर व ‘तमेव विदित्वाऽतिमृत्यमेति नान्यः विद्यतेऽयनाय' इस स्मृतिवाक्य से ब्रह्मज्ञान से ही मोक्ष बताया है। जैन शास्त्र ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' तथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' से सम्यग्दर्शनमूलक ज्ञान एवं चारित्र क्रिया से ही मोक्ष बताता है जो ज्ञान-क्रिया शास्त्रवार्ता आदि ग्रन्थ से तत्त्वनिश्चय द्वारा सम्पन्न द्वेषशमन से सुलभ होते है। अतः यहाँ कहा - 'द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः / 29 ___ मोक्ष शब्द को निर्वाण पद से सम्बोधित किया है। यह मोक्ष मानवीय जीवन से सुलभ है। देव जीवन के लिए इसे दुर्लभ कहा है, पर यह सर्व सुलभ नहीं है, क्योंकि सभी के लिए ममत्व रहित रहना, मोहशून्य बनना अशक्य है, फिर भी इसकी सत्यता का आश्वासन आप्त पुरुषों ने उच्चारित किया है। यह आप्तवाणी से ही समझ में आता है, क्योंकि प्रत्यक्षगम्य नहीं है। अनुमान से अनुसंधेय रहा है। फिर. भी दर्शन जगत बार-बार मोक्ष शब्द को दोहराता आया है। मोक्षगत जीव मोक्ष का परिचय नहीं देते हैं। ये तो शास्त्रवचनों से ही बोधित रहा है। अतः मोक्ष मान्य विषय रहा है मतिमानों का। इसमें इतिहास की साक्षी भी है। शास्त्र की सन्मति भी है। समाज की अनुमति भी है। अतः मोक्ष रुढ़ भी है, रहस्यमय भी है, और परोक्ष भी है। प्रमाणनयों से इसका प्रस्तुतिकरण होता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते है - मोक्षतत्त्व एक श्रद्धागम्य तत्त्व है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय है। उसे उपादेय रूप में स्वीकारा गया है। प्रत्येक जीवात्मा अत्यंत दुःख से निवृत्त होकर अत्यंत सुख की चाहना करता है। और यदि दुःख निवृत्ति मूलक सुख यदि कहीं हो तो वह मात्र मोक्ष में स्थित सिद्धात्माओं को संसार का कितना श्रेष्ठ कोटि का सुख क्यों न हो ? लेकिन वह दुःख मिश्रित ही होता है। जिससे जन्म-मरण की परंपरा चालू रहती है और वही सबसे बडा दुःख है। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने मोक्ष में ही अनुपम सुख है ऐसा धर्मसंग्रहणी में स्पष्ट रूप से कहा है तीनों लोक में स्थित भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन भावों के स्वभाव को प्रत्यक्ष जाननेवाले सर्वज्ञ भी सिद्धों के सुखों का वर्णन करने में शक्तिमान नहीं है, क्योंकि उसके लिए कोई उपमा जगत में नहीं मिलती जिससे उस सुख के साथ तुलना कर सके ऐसा अनंत सुख सिद्धों को है। यह बात अनुभव, युक्ति हेतु से घटती है और जिनेश्वर के वचन से सिद्ध है, श्रद्धेय है।३० कर्म के सन्दर्भ में - अपने चारों ओर निरीक्षण करने पर हमें दिखाई देता है कि विश्व में कुछ लोग बड़े-बड़े भूमि प्रदेशों के राज सिंहासन पर सुखासीन है, तो अन्य कुछ लोगों को पेटभर अन्न प्राप्त करने के लिए कडी मेहनत करनी पड़ती है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। दुनिया में ये विषमताएँ क्यों दिखाई देती है। इन विरोध विषमताओं का मूलभूत कारण क्या होना चाहिए कि जो इसकी नींव है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / सप्तम् अध्याय | 452