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________________ कर्मवादि कहते है कि चेतन अपने अध्यवसायों से कर्म से बँधता है, उस कारण से आत्मा को संसार प्राप्त होता है और उन कर्म-बंध के अथवा संसार के अभाव से आत्मा परम पद को प्राप्त होता है। अतः आत्मा को कर्म से दीन दुःखी ऐसे स्वयं उद्धार करना और स्वयं को कर्म से दुःखी नहीं बनाना। कहा है कि - आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। अतः स्वयं का उद्धार करना या अधोगति करना स्वयं के हाथ में है। शास्त्रोक्त वचन है कि - जो मैंने पूर्व में वैसा सुख-दुःख सम्बन्धी कर्म नहीं किया तो अतितुष्ट बने हुए मित्र और अति क्रोधित बने हुए शत्रु मुझे सुख-दुःख देने में समर्थ नहीं बन सकते। शुभाऽशुभानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः। स्वयमेवोपकुर्वन्ति दुःखानि च सुखानि च। ___जीव शुभ अथवा अशुभ कर्म स्वयं ही करते है और उसीसे सुख-दुःख स्वयं भोगते है। वन में, रण में, शत्रु के समूह में, जल में, अग्नि में, महासमुद्र में अथवा पर्वत के शिखर पर स्थित जीव निद्राधीन, प्रमादी हो अथवा विषम स्थिति में हो तो भी पूर्व में किया हुआ पुण्य जीव का रक्षण करता है। किसी उपदेशक ने कहा‘धन, गुण, विद्या, सदाचार, सुख तथा दुःख ये कुछ भी अपनी इच्छा से जीव को नहीं मिलते, उसी कारण से सारथी के वश से मैं यम की पालकी पर बैठकर दैव जिस मार्ग पर ले जाता है उस मार्ग में जाता है। अर्थात् कितना ही धन, गुण, विद्या, सदाचार, सुख, दुःख प्राप्त करो, परन्तु यह जीव पूर्वकृत कर्म के फल से बच नहीं सकता। जैसे-जैसे पूर्वकृत कर्म का फल निधान में स्थित धन की भाँति प्राप्त होता है, वैसे-वैसे उन कर्म का यह फल है ऐसा सूचित करनेवाली भिन्न-भिन्न बुद्धि मानो हाथ में दीपक रखकर आयी हो वैसी प्रवृत्त होती है। अर्थात् बुद्धि उसी प्रकार उत्पन्न होती है कि जीव को यह अमुक कर्म का फल ऐसा है यह स्पष्ट दिखाती है, कारण कि बुद्धि कर्म के अनुसार ही होती है। नैयायिक का कथन है कि कर्म अर्थात् पुण्य-पाप आत्मा के विशेष गुण है। कर्ममल का स्वरूप - अत्युन्नत रोहणाचल पर्वत के शिखर से गिरना, विषयुक्त अन्न खाकर संतोष धारण करना, यह जैसे अनर्थ के लिए होते है वैसे ही कर्ममल भी आत्मा के लिए अनर्थकारी होता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के द्वारा कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करना चाहिए। कर्म मूर्त अथवा अमूर्त - यह प्रधानरूप कर्म कि जिसे अपर दर्शनवादी भिन्न-भिन्न विशेषणों का उपचार करके एक दूसरे से अलग नाम देते है। जैसे कि - कुछ कर्म को मूर्त कहते है तो कुछ अमूर्त कहते है। यह स्वदर्शन का ही आग्रह है। फिर भी कर्म को संसार परिभ्रमण का कारण सभी दर्शनकार स्वीकारते है। उसमें जो भेद करते है वह विशेष प्रकार के ज्ञानाभाव के कारण ही, परंतु बुद्धिमान को जिस प्रकार देवता विशेष के नामों में भेद होने पर भी अभेद दिखता है, उसी प्रकार कर्म विशेष में नामभेद होने पर भी संसार का हेतु कर्म वासना, पाश, प्रकृति विगेरे में नाम भेद होने पर भी परमार्थ रूप से भेद नहीं होने से भेद मानना वह अवास्तविक है। क्योंकि कर्म मूर्त हो अथवा अमूर्त दोनों प्रकार के कर्म को दूर करना योग्य ही है। उसको दूर करके परम पद मोक्ष साधना करनी है।३६ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VA सप्तम् अध्याय 454
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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