SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेद करके सम्यक्त्व रूप परिणाम पाकर सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना अप्रमत्त भाव से करते गुण श्रेणि में चढ़ते मोहनीय कर्म को नाश करने तथा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अंतरायरूप घाती कर्मों को घात करने जो प्रवृत्ति होती है वैसी आत्मा की अवस्था को अंतरात्मा कहा जाता है। (3) परमात्मा - घाती कर्मों का नाश होने से सर्वज्ञता प्राप्त होती है और उसके द्वारा अंत में मोक्षपद प्राप्त हुए आत्मा को परमात्म भावदशा प्राप्त होती है और वही परमात्मा कहलाती है।१२ आत्मा की अमरता - वास्तव में पुनर्जन्म सिद्धान्त को माननेवाला ही आत्मवादी है। जन्म-मरण आत्मा का परिवर्तनशील अर्थात् पर्यायवाला पक्ष है और जन्म-मरण की श्रृंखला के बीच उसकी नित्यता का बना रहना आत्मा का नित्यत्व पक्ष है। पर्याय बदलते रहने पर भी आत्मा नहीं बदलती है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से सदैव युक्त होता है। द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा की नित्यता एवं पर्याय की अपेक्षा से पुनर्जन्म दोनों को प्रमाणित कर दिया है। जो आत्मा को परलोकगामी नहीं मानते है, उनके सामने आचार्य हरिभद्रसूरि ने सप्रमाण युक्तियाँ देकर आत्मा की परलोकगामिता सिद्ध की है। संतस्स नत्थि णासो, एगंतेणं ण यावि उप्पातो। अत्थि असंतस्स तओ, एसो परलोगगामि व्व (त्ति) // 13 सत् वस्तु का एकान्त से नाश नहीं होता है और एकान्त से असत् का उत्पाद भी नहीं होता, अतः आत्मा परलोकगामी सिद्ध होता है। एवं चैतन्यवानात्मा, सिद्ध सततभावतः। परलोक्यपि विज्ञेयो, युक्त मार्गानुसारिभिः // 14 उक्त युक्तियों से यह सिद्ध होता है कि ज्ञान का उपादान शरीर से भिन्न है, और वही आत्मा है। सतत विद्यमान होने से अर्थात् अविनाशी होने से वह परलोकगामी भी होता है। उसकी परलोकगामिता युक्तियों से विभूषित आगमशास्त्रों से अवगत होती है। अर्थात् किसी नवोत्पन्न शरीर में जो धर्म सर्वतः प्रथम उपलक्षित होते है वे उस शरीर के निकटतम पूर्ववर्ति शरीर के धर्मों से ही उत्पन्न होते है। निष्कर्ष यह है कि वर्तमान जीवन से पूर्व और वर्तमान जीवन की समाप्ति के पश्चात् भी आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति ही आत्मवाद है। अर्थात् आत्मा की अमरता का सिद्धान्त है। इसके बिना कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म की सम्यक् रूप से व्याख्या करना सम्भव नहीं है। क्योंकि पुनर्जन्म सिद्धान्त का मूल यही है कि जो जैसा कर्म करता है वैसी ही योनि या जन्म प्राप्त करता है। गीता भी आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म स्वीकार करती है। न केवल भारतीय विचारक अपितु पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो भी कहता है कि The Soul always weaves her garment a new. The Soul has a natural strength which will hold out and be born many times. | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII सप्तम् अध्याय 445
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy