SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मवादियों का यह प्राक्कथन है कि आत्मा में ही सभी देवों का निवास स्थान है, आत्मा स्वयं देवों से अधिष्ठित है साथ ही सम्पूर्ण जगत आत्मा में प्रतिष्ठित है तथा देहधारी प्राणियों के कर्म की जनक भी आत्मा ही है। अर्थात् सब कुछ आत्मा ही है, आत्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है। आत्मा ही धाता और सुख-दुःख का विधाता भी आत्मा है, स्वर्ग तथा नरक भी आत्मा है, विशेष क्या कहे यह सम्पूर्ण जगत वह आत्मा ही है। इस आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल आर्द्र नहीं बना सकता और हवा सुखा नहीं सकता। अतः यह आत्मा अछिद्य, अभेद्य, उपनाम रहित, नित्य निरंतर ज्ञान के द्वारा सभी पदार्थों में गति करनेवाला स्थिर, अचल और सनातन शाश्वत कहलाता है। यह आत्मा ही अक्षर पंचभूत रूप संप्रदायरूप, प्राणरूप, परब्रह्मरूप, हंस और पुरुष कहलाता है। इसलिए देखनेवाला, सुननेवाला, विचारकरनेवाला, कर्ता, भोक्ता और वक्ता आत्मा है। अन्य श्रेष्ठ कोई नहीं है। आत्मा सर्वश्रेष्ठ है।१० शास्त्रवार्ता समुच्चय में सांख्यदर्शन वाले आत्मा को व्यापार शून्य बताते है / उनका मत है कि पूरे जगत . . में कहीं भी आत्मा के व्यापार से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि आत्मा में कोई व्यापार ही नहीं होता है और जब उसमें कोई व्यापार ही होता तो उसका किसी वस्तु का जनक होना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता, क्योंकि किसी कार्य का जनन करने के लिए कारण को कुछ व्यापार करना पड़ता है। अतः जो किसी प्रकार का व्यापार नहीं कर सकता वह किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता। इसीलिए सांख्य सिद्धान्त में पुरुष को अकारण माना है।११ आत्मा के प्रकार - आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में मोक्ष मार्ग के पाँच श्रेष्ठ अंग बताये है। उसमें सर्व प्रथम अध्यात्म है / इस अध्यात्म योग के अन्तर्गत ही आत्मा के तीन प्रकार अवस्था के भेद से बताये है। (1) बाह्यात्मा (2) अंतरात्मा (3) परमात्मा (1) बाह्यात्मा - बाह्य अर्थात् पाँच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से उस प्रकार के क्षयोपशम से होने वाला विषय का बोध / उस बोध से जीवात्मा शारीरिक भोग के लिए पापारंभ करता हुआ देव, गुरु, धर्म, नीति, परभव आदि नहीं मानता। वर्तमान काल में भोग के लिए बहुत आसक्ति धारण करता है। कहा भी है कि - स्त्री धन भाई भगिनि, पुत्र पुत्रिओ कुटुंब परिवार के तेना संगे राचतो मोहे मुंझायो हो दुःख पामे अपार के, जिनवाणी चित्त आणीए। देहने मारो मानतो भेद समझे नहि, तेह अजाण के बहिरात्मा ते जाणवो। भेद पहेलो हो छंडो चतुर सुजान के जिनवाणी चित्त आणीए। ____जब तक ऐसा बाह्यात्म भाव होता है तब तक मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा अशुभ योग में जीव प्रवृत्ति करता है, ऐसा स्वभाववाला बहिरात्मा जानना। (2) अंतरात्मा - जब अपूर्व प्रवृत्तिरूप वैराग्यमय परिणाम होते है तब अपूर्वकरण रूप परिणाम से ग्रंथी - [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIMINIK VITA सप्तम् अध्याय | 444
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy