________________ ब्रह्म' यह सब कुछ ब्रह्मरूप है। अपनी सम्पूर्ण शक्ति से इस अद्वैत को युक्तियों से सिद्ध करने का प्रयत्न भी करते है। उनका कहना है कि एक ही ब्रह्म सभी प्राणियों के शरीर में भासमान होता है। कहा भी है ‘एक ही भूतात्मा सिद्ध ब्रह्म प्रत्येक भूत प्राणी आदि में रम रहा है। एक रूप से तथा अनेक रूप से जल में चन्द्रमा की तरह चमचमाता है।' जो कुछ हो चुका है तथा जो कुछ होनेवाला है वह सब ब्रह्म ही है।" ___ लोक व्यवहार में आत्मवाद आस्थेय है। परंतु दार्शनिक दृष्टिकोणों से चर्चित भी है। इस आत्मवाद चर्चा में बौद्धदर्शन उभयपक्षीय वातावरण से कुछ विसंगत जैसा बन जाता है। एक तरफ आत्मवाद के विषय में सर्वथा मौन है, जबकि स्वयं तथागत बुद्ध एक प्रसंग में मुखर नजर आते है। उन्होंने आत्मा के कर्म-विपाक का फल भी स्वीकारा है। जो कि पाद विद्ध कंटक के उदाहरण में स्पष्ट झलकता है। अतः बौद्ध दर्शन में आत्मवाद अमान्य नहीं बन सकता। चार्वाकों ने भी आत्मवाद को सर्वथा दूर रखा, लेकिन इसको चर्चित अवश्य बनाया है, पर स्वीकृत नहीं होने दिया। . - अन्य दर्शनों में आत्मवाद पर अपूर्व आस्था नजर आई है। इसलिए भारतीय दर्शन में आत्मवाद मूर्धन्य रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों से आत्मवाद का विवेचन विविध रूप से जीव रूप में, ब्रह्म रूप में, चैतन्य रूप में, पुरुषरूप में परिगणित हुआ है। लेकिन आचार्य हरिभद्र महामना बनकर शास्त्रवार्ता समुच्चय में आत्मा पर अपना चिन्तन प्रस्तुत करते हुए कहते है - यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च। संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः॥८ जो ज्ञानावरण आदि विविध कर्मों को करता है तथा उन कर्मों का फलभोग करता है, एवं अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि गतियों में जाता है और अपने कर्मों का ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है, निश्चितरूप से वही आत्मा है। जो ऐसा न हो, किसी अन्य प्रकार का है, वह आत्मा नहीं हो सकता, जैसे वेदांती और सांख्य का कूटस्थ तथा नैयायिक वैशेषिक का विभु या अनात्मवादियों का देह, प्राण, मन आदि। किसी भी अनित्य पदार्थ को आत्मा नहीं माना जा सकता क्योंकि आत्मा के कर्तृत्व आदि उक्त लक्षण अनित्य पदार्थ में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि जो कार्य के समय स्वयं नष्ट हो जायेगा वह कार्य का कारण नहीं हो सकता। आत्मा का स्वरूप - लोकतत्त्व निर्णय में अन्य दर्शन के आत्मवादियों के मत में आत्मा के स्वरूप को विभिन्न रूपों में व्यक्त किया है। जैसे कि - शास्त्र विद्यमान हो और उपदेशकों का संयोग भी विद्यमान हो फिर भी जो मनुष्य आत्मा को नहीं पहचानता है वे मनुष्य वास्तव में स्वयं के आत्मा से स्वयं ही घायल बने हुए के समान है। अर्थात् आत्मा के स्वरूप को ही नाश कर दिया है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIINIK सप्तम् अध्याय 1443