________________ इस प्रकार आत्मा की अमरता का सिद्धान्त अनेक विद्वान् स्वीकारते है क्योंकि इसके बिना जातिस्मरण, कर्मबन्ध, मोक्ष आदि कुछ भी घटेगा नहीं। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी सुन्दर युक्तियों से इसको सुदृढ बनाने का अपूर्व प्रयत्न किया है। योग के सन्दर्भ में - आत्मा अवबोध को उच्चतम उपयुक्त बनाने में योग की अपेक्षा रखता है। इसीलिए योग शब्द कई भावों से भव्य है, जिससे योग्यता अत्युन्नत झलकती हो, चमकती हो और चेहरे पर दिव्यता दर्शाती हो उसको भी योग साधना के नाम से पुकारते है। जहाँ निर्विकारता निश्चल होकर निर्विघ्न रहती है, वहाँ योग की योग्यता बसी हुई मिलती है। योग में दार्शनिकता भी है, दूरदर्शिता भी है और आत्मतत्त्व की स्पर्शिता भी है। जहाँ सुबोध स्पर्श करता हुआ स्वयं में प्रकाशवान् बन प्रकाशित हो जाता है, वहाँ योग अपने आप में आत्म निर्भर रहता हुआ एक अलौकिक तत्त्व का प्रकाश फैलाता है। वैसे योग विषयक कुछ नियम निर्धारित हुए, ग्रन्थ सर्जित हुए, योग ज्ञान की गुण गरिमा चर्चित बनी, कहीं अर्चित हुई। और कहीं-कहीं आचरित होकर अपने आप में योग की संज्ञा. . धारण करती गई। अन्य दर्शनों में भी योग को सम्मान मिला है। स्थान मिला है। जैन दर्शन में भी योग की भूमिका पर अपना आत्म अभ्युदय उल्लिखित किया है। इसलिए योग हमारी संस्कृति का एक मूलाधार विषय बनकर साहित्य में स्थान पाया है। आचार्य हरिभद्र भी योगविद् बनकर योगदर्शन के विवेचनकार विद्वान् हुए है। उनके स्वयं के योगविंशिका, योगशतक, योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु आदि ग्रन्थ उपलब्ध हो रहे है, क्योंकि ज्ञाता ही ज्ञेय को ज्ञापित करता है और उसकी ज्ञेयता के गौरव का उदाहरण देती ग्रन्थ रूप में गुम्फित हो जाती है, ऐसी ज्ञान की ग्रन्थमालाएँ अन्य दार्शनिकों ने भी गुंथी है, जिसमें महर्षि पतञ्जलि को प्रमुखता मिली है। महर्षि व्यास ने भी अनेक प्रसङ्गों में योग माहात्म्य और महत्त्व प्रदर्शित कर प्रशंसित बनाया है। योग के विषय को परिचित कराने में आचार्य हरिभद्र को विशेष योगदान मिला है। इन्होंने अपने ग्रन्थों में अन्यदर्शनकारों सम्बन्धी मान्यता भी व्यक्त की है। जो हमें उनके ग्रन्थों में स्थान स्थान पर मिलती है। जैसे कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने अध्यात्म भावना आदि योग के पाँच भेद बताये है। उन्हीं को अन्यदर्शनकारों ने भिन्न-भिन्न नामों से उल्लिखित किये है। तात्त्विकोऽतात्त्विकश्चायं, सानुबन्धस्तथापरः। सास्रवोऽनास्रवश्चेति, संज्ञाभेदेन कीर्तितः // तात्त्विकयोग, अतात्त्विकयोग, सानुबंधयोग, निरनुबंधयोग, सास्रवयोग, अनास्रवयोग इस प्रकार अन्यदर्शनकार संज्ञाभेद से योग को भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते है। योग का अधिकारी - श्रीमान् गोपेन्द्र योगीराज कहते है कि योगमार्ग में कौन प्रवेश कर सकता है, [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII सप्तम् अध्याय 1446