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________________ इस दृष्टि में रहे हुए साधक को अभिनिवेश नहीं रहता है। योगी पुरुषों का आग्रह श्रुत शील और समाधि में होता है। इस श्रुत शील और समाधि का अवध्यबीज परार्थकरण है। और यह आग्रह उचित है। योगी पुरुष को कुतर्क का कोई प्रयोजन नहीं होता है। कुतर्क विकल्पों से उत्पन्न होते है। विकल्प शब्दात्मक और अर्थात्मक होते है। इन सभी विकल्पों का संबंध ज्ञानावरण और मोहनीय कर्म के साथ होता है / 128 प्रेक्षावान् पुरुष अतीन्द्रिय धर्मादि अर्थों की सिद्धि के लिए शुष्क तर्क में प्रवृत्ति नहीं करते हैं। कारण कि अतीन्द्रिय अर्थ शुष्क तर्क के विषय नहीं है। अतीन्द्रिय अर्थ आगम के विषय हैं। अतः आगमप्रधान प्राज्ञ और शीलवान् पुरुष योगतत्पर बनकर अतीन्द्रिय अर्थों को जानते हैं। महामति महर्षि पतञ्जलि ने कहा है कि आगम से, अनुमान से और योगाभ्यास के रस से जो साधक अपनी प्रज्ञा को पुष्ट करता है वह साधक उत्तम तत्त्व को प्राप्त करता है।१२९ अतीन्द्रिय अर्थों का निश्चय योगिज्ञान बिना अशक्य है। इस विषय में विवादास्पद नहीं है। विवाद से तो चित्त की स्वस्थता का नाश होता है। हेतुवाद से यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय हो सकता होता तो इतने चिरकाल में तार्किकों, प्राज्ञपुरुषों ने कभी का निर्णय कर लिया होता। लेकिन अद्यावधि अतीन्द्रिय विषय में विवाद चल रहा है और भविष्य में चलता रहेगा। - इसलिए शुष्क तर्क, अनुमान, हेतुवाद अति रौद्र है, मिथ्याभिमान के कारण है। अतः मुमुक्षु आत्माओं को इसका त्याग करना चाहिए। वास्तव में मुमुक्षु आत्माओं के लिए किसी भी वस्तु में आग्रह उचित नहीं है। कारण कि मोक्ष में क्षायोपशमिक आदि धर्मों को भी छोड़ना ही है, तो फिर आग्रह किस लिए ? विवाद से चित्त की स्वस्थता का नाश क्यों करना ? अतः अतीन्द्रिय पदार्थों के निर्णय में प्रज्ञावंत पुरुषों के मार्ग को अपनाना चाहिए। उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर आरूढ़ होना ही न्याययुक्त है। उनके मार्ग का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। दीप्रादृष्टि में आये हुए साधक को इस प्रकार अनाग्रही बनकर सूक्ष्म भी परपीडा छोड़नी चाहिए। अन्य जीवों को अल्प भी दुःख न हो इसका सतत ध्यान रखकर जीना चाहिए। दूसरे जीवों पर परोपकार भी करना चाहिए और परोपकार के कार्य भी करना चाहिए। माता-पिता आदि गुरुजनों की, आराध्य कुलदेवता आदि की, व्रतधारी द्विजो की, साधु-मुनिजनों की यथायोग्य पूजा करनी चाहिए। जो जीव अपने कर्मों से हत-प्रहत अत्यंत पापी है। उनके प्रति भी अनुकंपा धारण करनी चाहिए। द्वेष नहीं करना यही उत्तम धर्म है।१३० इस प्रकार की स्थिति दीप्रादृष्टि वाले साधक की होती है। इस दृष्टि में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि लोकोत्तर धर्म के साथ लौकिक धर्म को अत्यावश्यक बताया है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII IIIIIIA षष्ठम् अध्याय | 427 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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