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________________ द्रव्य प्राणायाम नहीं भाव प्राणायाम को ही योग का चतुर्थ अंग स्वीकारते हैं।१२२ भाव प्राणायाम भी इसी प्रकार होता है। लेकिन वह आध्यात्मिक भावना से युक्त होता है। आत्मा में से परभाव का त्याग करना अर्थात् आरोग्य संपत्ति और सांसारिक सुखोपभोगों के विचार और उनके प्रति आसक्ति को त्यागना रेचकभावप्राणायाम है। आत्मा में अंतरात्मभाव प्रगट करना अर्थात् मोक्ष और मोक्ष के साधक ज्ञान आदि का चिंतन करना यह पूरकभावप्राणायाम है। और आत्मा को स्वभाव दशा में स्थिर करना अर्थात् एकाग्रता चिंतन और ध्यान को आत्म संबंध में स्वीकारना यह कुंभकभावप्राणायाम है। इस भाव प्राणायाम का वर्णन पतञ्जलि के योग सूत्र में नहीं मिलता है। इस भाव प्राणायाम से अवश्य योगदशा प्राप्त होती है।१२३ / ___ इस दृष्टि में साधक प्राण से भी विशेष धर्म पर श्रद्धा रखता है, यह धर्म के लिए प्राणों का त्याग कर लेता है। परंतु प्राणरक्षा के लिए धर्म का कभी त्याग नहीं करता है। इस दृष्टि में आये हुए व्यक्ति को यह बोध होता है कि धर्म ही एक सच्चा मित्र है। परभव में आत्मा के साथ वही आता है। शेष सभी तो शरीर के साथ ही विनाश हो जाते है। इस प्रकार उत्तम आशय से युक्त 'तत्त्वश्रवण' करता है। उसके प्रभाव से प्राणों से भी परम श्रेष्ठ धर्म को स्वीकारता है। इस प्रकार संसार को क्षारयुक्त पानी के तुल्य मानता है। और तत्त्वश्रुति को मधुर जल के समान मानता है।१२४ / / उपाध्याय यशोविजयजी म. ने अध्यात्मसार 25 में तथा विनयविजयजी१२६ ने श्री पुण्यप्रकाश के स्तवन में इन भावों को प्रस्तुत किये है। तत्त्वश्रवण से अवश्य जीवों का परोपकारादि कल्याण होता है। यह तत्त्वश्रवण ज्ञानी गुरु के पास करता है। जिससे गुरु-भक्ति सहज प्रगट होती है। गुरु आज्ञा से यह परोपकारादि करता है और उससे आलोक और परलोक का हित साधता है। गुरु भक्ति से सानुबंध पुण्य का उपार्जन होता है। जो आगामी भवों में भी साथ चलता है। इस गुरु भक्ति के प्रभाव से साधक ऐसा पुण्य का उपार्जन करता है जिसके परिणाम से ऐसे क्षेत्र में जन्म होता है जहाँ तीर्थंकर के दर्शन होते है और आगे जाकर यह आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का भी बंध कर सकती है। इस प्रकार यह तत्त्व-श्रवण मोक्ष का अवन्ध्य कारण है। इतना होने पर भी इस दृष्टि में साधक को सूक्ष्म बोध नहीं होता है, कारण कि अभी उस साधक आत्मा की मोहग्रंथी का भेदन नहीं हुआ है। और जहाँ तक ग्रंथिभेद नहीं होता है वहां तक सूक्ष्मबोध भी प्राप्त नहीं होता है। हेतु स्वरूप और फलज्ञान से ज्ञानीपुरुषों जो पारमार्थिक तत्त्वनिर्णय करते हैं वह 'सूक्ष्मबोध' कहलाता है। और वह वेद्यसंवेद्य' पद से होता है।१२७ जिनागमों में ग्रन्थिभेद होने के पश्चात् सम्यग् दर्शन और देशविरति की अवस्था साधक को प्राप्त होती . है। उसे 'वेद्यसंवेद्यपद' कहा जाता है। यह पद इस दृष्टि में नहीं होता है। आचार्य हरिभद्रसू का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII षष्ठम अध्याय 426
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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