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________________ ___ इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है - इस दृष्टि में साधक सभी कार्य सामान्यता से त्वरा (आकुल-व्याकुल) रहित करता है। तथा प्राप्तदृष्टि में अपाय (दोष-हानि) का परिहार करने मन की स्थिरता पूर्वक करता है। प्रथम दृष्टि में जीव मार्गाभिमुख बनता है। दूसरी दृष्टि में जीव मार्गपतित बनता है। तथा तीसरी दृष्टि में जीव मार्गानुसारी बनता है। मनोहर रूपवती स्त्री से संयुक्त ऐसे युवान पुरुष को दिव्य गायन सुनने में जैसी शुश्रूषा होती है। उससे भी अधिक तत्त्वविषयक शुश्रूषा इस दृष्टिवाले जीव को होती है।११२ तरुण सुखी स्त्री परिवर्यो रे, चतुर सुणे सुरगीत। तेहथी रागे अतिघणे रे, धर्म सुण्यानी रीते रे॥११३ तरुण सुखी स्त्री परिवर्यो जी, जिम चाहे सुरगीत। तेम सांभलवा तत्त्वने जी, एह दृष्टि सुविनित रे। जिनजी।१४ इस दृष्टि में चारित्रपालन के अभ्यास को करते-करते साधक की वृत्तियाँ एकाग्र बनती है और तत्त्वचिंतन में स्थिरता का अनुभव करता है। साधक विविध आसनों का सहारा लेकर चारित्र विकास की सम्पूर्ण क्रियाओं को आलस रहित करता है। तत्त्वचर्चा का - श्रवण का संयोग मिले अथवा न मिले लेकिन शुश्रूषा गुण की विद्यमानता होने के. कारण तथा शुभभाव पूर्वक प्रवृत्ति करने के कारण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय रूप फल अवश्य प्राप्त होता है। वही उत्तम बोधका कारण है। ध्यान-धारणा आदि में कभी विक्षेप नहीं आता है। उन-उन ध्यान-आराधना में स्वाभाविक कुशलता प्राप्त होती है। शुभ परिणामों के कारण समता भाव का विकास होता है। परिणाम में साधक अपनी प्रिय वस्तुका भी आग्रह नहीं करता है। इस प्रकार इस दृष्टि में साधक की वृत्तियाँ शांत हो जाती है। मन की स्थिरता प्राप्त होती है। समता भाव प्रगट होता है। और आत्मा की विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।११५ (4) दीप्रादृष्टि - यह चौथी दृष्टि है। इस दृष्टि में दीपक के प्रकाश के समान तत्त्वबोध स्पष्ट और स्थिर होता है,११६ लेकिन वायु के झोंके से जिस प्रकार दीपक की लौह समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार कभी-कभी साधक का ज्ञानदीपक मिथ्यात्व के उदय से बुझ जाता है। इसमें साधक आध्यात्मिक को सुनता है। किन्तु सूक्ष्मता से बोध नहीं होता है। इस दृष्टि में प्राणायाम नाम के योग का चौथा अंग प्राप्त होता है। 17 __प्राणायाम में पतञ्जलि के अनुसार आध्यात्मिक पात्रता की आवश्यकता नहीं है, किन्तु मात्र शारीरिक पात्रता की आवश्यकता है। किन्तु यहाँ पर प्राणायाम का अर्थ सिर्फ श्वास नियंत्रण नहीं लिया गया है।११८ किन्तु दो प्रकार के प्राणायाम का वर्णन करते हैं - द्रव्य प्राणायाम और भाव प्राणायाम।११९९ द्रव्यप्राणायाम में श्वास खींचना पूरक है, श्वास छोड़ना रेचक है। तथा श्वास को रोककर रखना कुंभक है।१२० यह पतञ्जलि के समानान्तर है।१२१ और इसको ही ये योग का चौथा अंग मानते है। जबकि जैनाचार्य [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VA ALLINA षष्ठम् अध्याय | 425 ) 425
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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