________________ अनाभोगवश भी अनुचित प्रवृत्ति नहीं करता है। आचार्य आदि गुणाधिक में ध्यान आदि आराधना देखकर, स्वयं को भी करने की जिज्ञासा होती है। तीव्र अभिलाषा प्रगट होती है। अपने से अधिक साधना करनेवाले के प्रति द्वेष नहीं होता है / स्वयं में कायोत्सर्गादि आराधना में क्षति देखकर संत्रास होता है। हार्दिक दुःख होता है। अररे ! मैं विराधक हूँ। इस दृष्टि में आया हुआ साधक आत्मचिंता करता है। यह संसार वास्तव में दुःखरूप, जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों से भरपूर है। संसारभाव को दूर करनेवाले साधनों का भी चिंतन करता है। इस दुःखरूप भव का अंत कब आयेगा ? मुनिजनों की प्रवृत्ति विविध प्रकार की होती है, यह मेरे लिए जानना अशक्य है। शास्त्र का विस्तार गहन, गंभीर, महान् है, हमारी वैसी प्रज्ञा नहीं है, इसमें शिष्ट पुरुष ही प्रमाणभूत है। ऐसा इस दृष्टि में स्थित जीव सदा मानता है।१०२ (3) बलादृष्टि - इस अवस्था में ज्ञानबोध और भी दृढ़ होता है। जिसकी उपमा काष्ट की अग्निकण के प्रकाश से की है। यह दीर्घकालस्थायी और तीव्र शक्तिवाला होता है। इसमें साधक तात्त्विक चर्चाओं में तीव्र जिज्ञासावाला होता है। हरिभद्रानुसार यहाँ विश्रामपूर्ण कायासन को प्राप्त करता है।१०३ जो की पतञ्जलि का तृतीय योगांग है।१०४ हरिभद्रानुसार इस दृष्टि में स्वभाव से असत् तृष्णा समाप्त हो जाती है। जिससे सर्वत्र सुखपूर्वक आसन होता है।१०५ डॉ. भगवान दो प्रकार के आसनों का वर्णन करते है - (1) कायासन (2) स्वयं आसन या अध्यात्मासन।१०६ हरिभद्र के कायासन पतञ्जलि के आसनों के समानान्तर ही है। किन्तु भावासन बिल्कुल भिन्न है। मीमांसा करनेवाले व्यास भी बाह्य या भौतिक आसनों का वर्णन करते है। वह पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वरिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्येक, क्रौंच-निषादन, हस्ति-निषादन, उष्ट्र-निषादन, समसंस्थान, स्थिर सुख, यथासुख इत्यादि।१०७ उसमें आंतरिक या आध्यात्मिक आसनों को हरिभद्र के समान महत्त्व प्रदान नहीं किया है। अनादिकाल से मन ज्ञानेन्द्रिय के अनाध्यात्मिक गंदी गलियों में घूम रहा है। किन्तु यम-नियम के द्वारा उसको आध्यात्मिक मार्ग में जोड़ा जा सकता है।१०८ आध्यात्मिक स्थिति के बिना शारीरिक आसन स्थितियों का कोई महत्त्व नहीं है। तन-मन स्थिरता ही सच्चा सुखासन है।०९ वस्तुतः पतञ्जलि के शास्त्रों में बताए गये आसनों में आध्यात्मिक पात्रता दिखाई नहीं देती है। वह तो केवल शारीरिक पात्रता की अहमियत रखती है। इसी विषम परिस्थिति से बचने के लिए कहा गया है कि अपने स्वभाव में स्थिर होने से शारीरिक पात्रता में भी स्थिरता आ जाती है।११० कहा है आप स्वभावमां रे अवधु, सदा मगन में रहना। जगत जीव है कर्माधीना, अचरीज कच्छुह न लीना / / तुम नही केरा कोई नहीं तेरा, क्यो करे मेरा मेरा। तेरा है सो तेरी पासे, अवर सब अनेरा // आप.॥१११ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII षष्ठम् अध्याय 1424