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________________ (5) स्थिरा दृष्टि - यहाँ पर आत्म तत्त्व का शाश्वत लक्षण प्रगट है और उसकी तुलना रत्न के प्रकाश से की है।१३१ इस दृष्टि में रत्न की प्रभा के समान स्थिर बोध होता है। अर्थात् नित्य-अप्रतिपाति / इस तत्त्वबोध में योगी को अल्प भी भ्रान्ति नहीं होती है। यहाँ साधक को सारासार बुद्धि होती है। जिससे अज्ञान का अंधकार दूर होता है। इस स्थिति में राग-द्वेष की ग्रंथी का भेदन होता है, जिससे लौकिक घटना में बच्चों के मिट्टी के घरौंदे के समान ये ग्रंथी रहती है। अर्थात् संसार की सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ सम्यग् दृष्टि योगी को रमत के समान लगती है। यहाँ लौकिक वस्तुएँ को भी जादूगर के करिश्मे के समान, मरीचि का, गन्धर्वनगर एवं स्वप्न के समान लगती है। विवेक के द्वारा उस प्रकाश में साधक स्पष्ट रूप से बाह्य जगत और ज्ञानेन्द्रिय जनित सुखों का सच्चा स्वरूप का निरीक्षण कर लेता है। इसके पहले ज्ञानेन्द्रिय सुखों में बेकाबू बनकर जानवरों की भांति सुखोपभोग के लिए दौड़ लगाता था। किन्तु अब सारासार बुद्धि से निर्णय कर लेता है कि जो परम तत्त्व है वह आंतर तत्त्व है। एक ज्योति-स्वरूप है। अमूर्त और पीड़ा रहित है, अरोगी है। यह आत्मतत्त्व ही लोक में है / शेष सभी उपप्लव है। अब वह बाह्य सौंदर्य में आकृष्ट नहीं बनता है। इन्द्रिय जन्य सुखों की गवेषणा में नहीं भटकता है। किन्तु मन के अनुसार विचरते है। यह प्रत्याहार है।१३२ ___ पतञ्जलि योग में प्रत्याहार का पाँचवा स्थान है / 133 ज्ञानेन्द्रिय का कार्य अपने-अपने विषयों में रत होना है। किन्तु उससे एकाग्र न होना यह मन का भाव प्रत्याहार है।१३४ प्रत्याहार का वर्णन करते हुए व्यास कहते है कि “मधुमक्खी जिस तरह राजमक्खी का अनुसरण करते हुए उठती-बैठती, उसी तरह ज्ञानेन्द्रियाँ मन का आज्ञानुसार चलती रूकती हैं।१३५ प्रत्याहार से मन अपने स्वभाव में वश होकर अपने एकाग्र-ध्यान में रहता हुआ जाना जाता है और चित्तनिरोध होने से ज्ञानेन्द्रियों से चित्त हटकर एकाग्रता में विलीन हो जाता है। मन भी हलन-चलन से रुक जाता है।१३६ इस अवस्था में पतञ्जलि और हरिभद्रसूरि दोनों की उपलब्धि समान ही है। किन्तु उनके साधन भिन्न है। हरिभद्रसूरि की उपलब्धि सारासारबोध द्वारा है, तो पतञ्जलि की उपलब्धि अभ्यास द्वारा है। इस दृष्टि में आया हुआ योगी यह जानता है कि धर्म के फलरूप में प्राप्त होने वाले भोगसुख भी प्रायः जीवों के लिए अनर्थकारी बनते है। अतः उसे भोगसुखों में आनंद नहीं होता है। कारण कि चन्दन काष्ठ की अग्नि भी जलाती ही है। इस प्रकार इस स्थिरादृष्टि में योगी पुरुष आन्तर आत्मानंद की अनुभूति करता है। 137 (6) कांतादृष्टि - कान्ता दृष्टि योगी का ज्ञान प्रकाश आकाश के ताराओं के प्रकाश के समान स्थिर, शान्त और दीर्घकालीन होता है।१३८ इस दृष्टि में धारणा नामके योगांग को योगी सिद्ध करता है। अर्थात् स्वयं के चित्त को आत्मतत्त्व के साथ जोड़ देता है। तथा सर्वथा इसके चित्त में हितकारी तत्त्वविचार ही चलते रहते है। इस दृष्टि में विशिष्ट धर्म के प्रभाव से तथा विशुद्ध सदाचारों के पालन से योगी सभी जीवों का प्रिय बनता है। इसका चित्त धर्म में एकाग्रता का अनुभव करता है। योगी का मन सदैव आगम-भावना में निमग्न रहता है। शरीर भले ही लौकिक कार्यों में लगा हो। ऐसे | आचार्य हरिभद्रता का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII षष्ठम् अध्याय | 428
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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