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________________ उपकार करनेवाला आत्म परिणाम को सिद्धि नाम का आशय कहते हैं। (5) विनियोग - सिद्धि नाम के चतुर्थ आशय की प्राप्ति का उत्तरकार्य विनियोग है। अर्थात् जिस धर्मस्थान की स्वयं में सिद्धि प्राप्त हुई हो उसका यथायोग्य उपायों द्वारा दूसरे जीवों में संपादन करना विनियोग कहलाता है। धर्म का किया हुआ यह विनियोग भावि में आनेवाले अनेक भवों की परंपरा के क्रम से वृद्धि प्राप्त करता उत्कृष्ट धर्मस्थान की प्राप्ति का अवन्ध्यकारण बनता है। जिस प्रकार बाल्यावस्था में जिस विषय का अत्यंत अभ्यास किया हो वह विषय युवावस्था में अधिक दृढ़तर बनता है। वही इस जन्म में बारंबार विनियोग करने पर जो धर्मानुष्ठान अधिक भावित बना हो वह धर्मस्थान भावि के भवों में ज्यादा आत्मसात् बनता है। अतः विनियोग करना यह भावि की उत्कृष्ट धर्म प्राप्ति का अवन्ध्यकारण है। तथा अविच्छेद रूप से प्राप्ति होती है। तथा उत्तरोत्तर सुंदर धर्मानुष्ठान बनता है।५।। इस प्रकार उपरोक्त प्रणिधानादि आशयों द्वारा परिशुद्ध बना हुआ सम्पूर्ण धर्मव्यापार सानुबन्ध होने से योग कहलाता है। और प्रणिधानादि आशय बिना किया हुआ सभी बाह्य क्रिया व्यवहार सानुबंध नहीं होने से तथा मोक्ष के साथ आत्मा को नहीं जोड़ने से तथा विपरीत कार्य के अभिमान से कषाय का हेतु बनने से योग नहीं कहलाता है।८६ . अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने आशय शुद्धि में योग को स्वीकारा है। भले वह बाह्य क्रिया हो लेकिन आशय शुद्ध है तो वह सानुबन्ध होने से योग कहलाता है। इन आशयों को आचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने योगग्रन्थों में बहुत विस्तृत रूप से समझाये है। अन्यदर्शनों में ऐसा वर्णन कहीं देखने में नहीं आया। योग की दृष्टियाँ - जैन शासन की परंपरा में मोक्ष तक की श्रेणियाँ बनाई है, जो आचार्य हरिभद्र तक चलती रही। इसमें मानव अत्यंत निम्न निकृष्ट श्रेणी से अत्यंत उज्जवल स्वरूप तक अपने व्यक्तित्व को विकसित करता है। इन्हीं चौदह विकासोन्मुख श्रेणियों को गुणस्थानक कहा है। योगदृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने आध्यात्मिक विकास श्रेणि की नूतन पद्धति ही प्रस्तुत की है। उन्होंने आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक उत्क्रांति को आठ अवस्थाओं में विभाजित किया है। जिन्हें आठ दृष्टियाँ कहकर सम्बोधित की है। ये आठ दृष्टियाँ आचार्य हरिभद्रसूरि के योग के आठ आधार स्तंभ है। ___सम्यग् श्रद्धा से युक्त ऐसा जो बोध वह योग दृष्टि कहलाती है। इस अवबोध से असत् प्रवृत्तिओं का नाश होता है और सत् प्रवृत्ति की प्राप्ति होती है। इसमें साधक आध्यात्मिक उन्नति करते हुए प्रत्येक अवस्था में नई-नई दृष्टि को प्राप्त करता है। इसी कारण इसे दृष्टि कहा गया है। यह दृष्टि सम्यक् श्रद्धा से जुडी हुई है। इससे वासना-प्रवृत्तियों का उत्तरोत्तर नाश होता जाता है और एक आदर्श पूर्णावस्था प्राप्त होती है। ___आठ दृष्टियों का स्वरूप 'योग-दृष्टि समुच्चय' ग्रन्थ में अत्यंत सुचारु रूप से किया है। यह आचार्य हरिभद्रसूरि का अपना मौलिक दृष्टिकोण है क्योंकि पहले किसी जैनाचार्य अथवा अन्यदर्शनकारों ने इसके | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII षष्ठम् अध्याय 421
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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