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________________ प्रकार उत्तरोत्तर बढने वाला आत्मा का जो स्थिरतावाला परिणाम विघ्नजय कहलाता है। विजय प्राप्त करने योग्य विघ्न तीन प्रकार के है - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट / अतः आत्मा के परिणाम भी तीन प्रकार के कहे जाते है। इन तीनों विघ्नजय को आचार्य हरिभद्रसूरि ने दृष्टांत देकर सचोट रूप से समझाया है। जघन्य विघ्नजय - जैसे कोई पथिक एक गाँव से दूसरे गाँव में गमन करना चाहता है लेकिन जिस मार्ग से वह गमन कर रहा है वह मार्ग कांटों से भरपूर है। ये कंटक उसके मार्ग गमन में विघ्न रूप है। उसी प्रकार मोक्ष का इच्छुक आत्मा मोक्षमार्ग में प्रयाण करता है लेकिन उसकी धर्मक्रिया में शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा आदि परिषह विघ्नरूप है। यदि उस मार्ग में से कंटकों को हटा दिया जाय तो गमन निश्चित हो जाता है। उसी प्रकार शीत, उष्णादि परिषहों पर विजय करने का आत्मवीर्य प्रकर्षरूप आत्म परिणाम प्रगट हो जाय तो मोक्षमार्ग की गति भी सुकर बन जाती है। अतः परिषह को जीतनेवाला आत्मा परिणाम वह प्रथम जघन्य विघ्नजय है। मध्यम विघ्नजय - एक गाँव से दूसरे गाँव जाने में बुखार आदि शारीरिक पीडा उत्पन्न होने पर वहाँ जाना कठिन हो जाता है। कंटक तो बाह्य विघ्न था लेकिन यह आंतरिक विघ्न है। अतः जाने की इच्छा होने पर भी प्रवृत्ति करने में अशक्तिमान होता है। फिर भी वह बुखार आदि की अवगणना गति करने में कारण बनती है। उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रयाण करनेवाले आराधक आत्मा को भी बुखार के समान शारीरिक रोग ही विशिष्ट धर्मानुष्ठान की आराधना करने में प्रतिबंधक होने से विघ्नस्वरूप है। अतः रोग दूर करना, अथवा रोग उत्पन्न ही न हो उसका ध्यान रखना, जैसा कि 'पिंडनियुक्ति में कहा कि हित-मित तथा पथ्य आहार लेने से रोग उत्पन्न नहीं होते है। अथवा रोग की उपेक्षा करना 'मध्यम विघ्नजय' है। उत्कृष्ट विघ्नजय - एक गाँव से दूसरे गाँव में जाने की इच्छावाले पथिक को दिशा का भ्रम रूप विघ्न होने से तथा दूसरों के द्वारा पुनः पुनः समझाने पर भी विश्वास न होने से मंदोत्साह वाला बनता है और दिशा भ्रम दूर जाने पर स्वयं सही दिशा जान लेने पर तथा अन्य पथिको द्वारा बार-बार यही दिशा बराबर है, ऐसा कहने पर वह मंदोत्साह को छोड़कर शीघ्र तेज गति से चलता है। उसी प्रकार दिशा के भ्रम तुल्य मिथ्यात्वादि मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले मनोविभ्रम यह विघ्नरूप है। मोहनीय के उदय से उसे सत्य धर्म अच्छा नहीं लगता है। अन्य ज्ञानी आत्मा के कहने पर भी अहंकार, मिथ्यात्व से जीव सत्य मार्ग स्वीकार नहीं करता है और संसार में इधर-उधर भटकता है। लेकिन गुरु पारतन्त्र्य द्वारा और मिथ्यात्वादि की प्रतिपक्ष भावना से उस आत्मा के मन का विभ्रम दूर होने से मिथ्यात्वादि महाविघ्नों का पराभव रूप विजय ही धारावाही मोक्षमार्ग तरफ के प्रयाण का संपादक बनती है। यह अन्तिम अर्थात् तीसरा उत्कृष्ट विघ्नजय है। (4) सिद्धि - अहिंसादि अधिकृत धर्म की अतिचार रहित ऐसी प्राप्ति वह सिद्धि कहलाती है। अर्थात् प्रणिधान-प्रवृत्ति और विघ्नजय द्वारा अहिंसा-सत्य-अचौर्य आदि जिन-जिन अधिकृत धर्मानुष्ठानों की प्राप्ति हुई हो तो उस प्राप्ति से जो अधिक गुणवाले गुरु आदि के प्रति विनय वैयावच्च बहुमान भाव आदि से युक्त होना तथा हीनगुणवालों पर दया, दान, आपत्तियों को दूर करनेवाला होना तथा मध्यम गुणवाले आत्माओं पर परस्पर [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII VA षष्ठम् अध्याय | 4200
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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