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________________ आशयभेदा एते सर्वेऽपि हि तत्त्वतोऽवगन्तव्याः। भावोऽयमनेन विना, चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छा // 4 प्रणिधानादि ये सभी पाँच प्रकार के आशयभेद ही तात्त्विक योग जानना चाहिए। यही भावयोग कहलाता है। इस भावयोग के बिना की हुई सम्पूर्ण चेष्टा द्रव्यक्रिया और तुच्छ है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन पाँच आशयों के द्वारा साधक की प्रारम्भिक भूमिका से लेकर अंतिम भूमिका तक की आंतर परिणति को प्रगट कर दी है। उनकी योग विषयक पैनी बुद्धि वास्तविक रूप से अद्वितीय थी। उनका चिन्तन था कि चाहे यह आशय कायिक क्रिया रूप हो। लेकिन इन आशयों के द्वारा जब शुद्धि विशुद्धि में आत्मा अग्रेसर बढ़ता जाता है तब वह लक्ष्य स्थान को पा लेता है। प्रणिधान आशय में उन्होंने आत्मा को मध्यस्थ परोपकारी एवं दृढ प्रतिज्ञा वाला बताया है। जीवन में कई बार ऐसे प्रसंग आते है, जिससे व्यक्ति अपने से हीनस्थ गुणवालों के प्रति द्वेष करता है। समय पाकर भी यथाशक्ति परोपकार नहीं करता तथा स्वीकार किये हुए धर्मानुष्ठान में बिघ्न आने पर छोड़ने के परिणामवाला हो जाता है। लेकिन प्रणिधान नाम के आशय में आनेवाला आत्मा की परिणति कुछ विशिष्ट स्वरूप को धारण कर लेती है। वह अपने से हीन गुणवाले पर भी द्वेष नहीं करता। जिससे उस व्यक्ति में एक भी गुण होने पर भी बहुमान आता है तथा द्वेष का अभाव होने से निकट वर्तित्व आता है। सम्बन्ध में मधुरता बढ़ने से भविष्य में उन-उन व्यक्तियों को भी गुणियल बनाने में समर्थ बन सके। दूसरों के परोपकार करने की वृत्ति होने से स्वयं को जिन-जिन गुणों की प्राप्ति हुई है, वे गुण दूसरों को कैसे प्राप्त हो, हमेशा इस प्रकार का चित्त रहता है। स्वयं जिस अनुष्ठान को स्वीकार करता है, वह धर्मानुष्ठान पालन करने में सतत उद्यमशील रहता है। अर्थात् निर्दोष वस्तु के चिन्तन मनवाला स्वयं की स्वीकृत धर्मक्रिया में अविचल. हीन गणवालों के उपर करुणचित्तवाला और परोपकारपरायण अध्यवसाय यक्त प्रथम प्रणिधान आशय कहलाता है। (2) प्रवृत्ति - दूसरे आशय के द्वारा आत्मा की क्रमिक विकास दृष्टि को बताया है। जैसे-जैसे आत्मा आगे के आशय में आता है, वैसे-वैसे आत्मिक विकास प्रगतिशील होता जाता है। इस आशय में आत्मा को जो अनुष्ठान प्राप्त होता है उसमें विशेष उपयोग पूर्वक प्रयत्न करता है, तथा मुझे अपने आत्म कल्याण के लिए वीतराग प्रणीत धर्मानुष्ठान करना ही चाहिए, क्योंकि उसके द्वारा ही मोह का पराभव करके कर्मक्षय होना शक्य है, तथा वह निस्पृह निर्मोह, और उपयोगवंत होता है। उत्सुकता आदि दोषों से रहित श्रेष्ठ, प्रकृष्ट अनुष्ठान होता है। उत्सुकता नहीं होने से एकाग्रचित्त अनुष्ठान होता है। (3) विघ्नजय - विघ्नों का जय इति विघ्नजय अर्थात् धर्मकार्य में आनेवाले अंतराय को दूर करने के आत्मा के परिणाम विशेष वह 'विघ्नजय' नाम का तीसरा आशय है। प्रवृत्ति नाम के दूसरे आशय से जीव धर्मकार्य में प्रवृत्त होता हैं। परंतु विघ्न आने पर प्रवृत्ति मंद हो जाती है। लेकिन इस आशयवाला व्यक्ति विघ्नों से पराभूत न बनकर शूरवीरता से विघ्नों का सामना करता है। इस | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII VA षष्ठम् अध्याय | 419
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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