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________________ है। विधि का यदि पक्ष रखा तो जनसंख्या की कमी होने से तीर्थ का विच्छेद हो जायेगा। इसलिए कुछ अविधि भी चला लेनी चाहिए। अगर मामा नहीं है तो काणा मामा भी अच्छा'-इस न्यायानुसार क्रिया न करनेवाले से अविधिवाले अच्छे है। इत्यादि विचार मन-मस्तिष्क में घूमते रहने से अविधि की प्ररूपणा का आभोग आशय उपयोग हृदय में प्रतिष्ठित होने से कंठ से मुख से चाहे विधि की प्ररूपणा करता हो लेकिन अविधि हो तो भी चलेगी - ये विचार हृदयगत होने से अविधि के कथन की अनुमोदना का दोष अवश्य लगता है। अतः वास्तव में उपदेशक को श्रोता को यथार्थ सम्यग् विधि का बोध करवाना चाहिए। उसके साथ अविधि निषेध का भी सुन्दर सुस्पष्ट शब्दों से करना चाहिए। जिससे सामान्य व्यक्ति भी विधि-निषेध को जान सके। इस अविधि का निषेध जो उपदेशक न करे और उपेक्षावृत्ति का सेवन करे तो उपदेशक को अविधि के मार्ग का अनुमोदन होने से उन्मार्ग प्ररूपणा के प्रवर्तक माने जायेंगे। इसीसे परोपकार परायण शास्त्रज्ञ ऐसे धर्माचार्य को उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन सामर्थ्यवान् बनकर प्रकर्षप्रज्ञा से विधि की प्ररूपणा के साथ अविधि का निषेध विधि से प्राप्त गुण लाभ तथा अविधि से होनेवाले अनर्थों का दृष्टांत आदि देकर श्रोताओं को विधि-मार्ग में प्रवेश करवाना चाहिए। इसमें एक भी विधि-रसिक जीव को सम्यग् का लाभ होगा तो क्रमशः आगे देशविरति और सर्वविरति प्राप्त कर षट्काय जीवों का संरक्षक बनकर चौदह राजलोक में अमारी पटह बजाने द्वारा मेरे द्वारा किसी जीव को दुःख न हो, उपद्रव न हो एसी प्रकृष्ट भावना द्वारा गुणस्थानों में चढ़ता है और अपने सम्पर्क में आने वाले दूसरे जीवों को भी सर्वविरति मार्ग पर प्रेरित करता है और वही सच्ची तीर्थोन्नति है। अविधि की प्ररूपणा से बोधिबीज का नाश होता है और जीव धर्म से विमुख बनता है। वही तो सच्चा तीर्थ-विच्छेद है।९ / ___अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट कह दिया कि अविधि का अनुष्ठान करनेवाले बहुत लोग हो तो भी ग्राह्य नहीं है। क्योंकि यह स्पष्ट शास्त्रवचन है कि बहुत लोक करते है वह करना चाहिए। इस प्रकार की मति शास्त्र निरपेक्ष है / उसको छोड़ देना चाहिए। क्योंकि संसार में अनार्यों से आर्यों, आर्यों में भी जैन, जैनों में भी परिणामी जैन अल्प होते है। अतः बहुजनवाला मार्ग यदि सच्चा माना जाय तो मिथ्यात्वमति वाले मार्ग को मार्ग ही कहना पड़ेगा। उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. ने 350 गाथा का सीमंधर स्वामी के स्तवन, ज्ञानसार आदि में भी कहा है। सारांश - असदनुष्ठान में ही तीर्थ का उच्छेद होता है। अतः असदनुष्ठान करनेवाले बहुजन हो तो भी त्याज्य छोड़ने योग्य है। यह निश्चित है। ___आशयशुद्धि में योग - आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग को बाह्य-क्रिया कलापों तक ही सीमित न रखकर आंतर परिणाम की परिणति से भी संयुक्त किया है। क्योंकि उनका अंतिम लक्ष्य अपवर्ग की प्राप्ति था और वह जब तक आंतर परिणति शुद्ध विशुद्ध नहीं होगी। वहाँ तक सम्पूर्ण क्रिया द्रव्य योग के अन्तर्गत समाविष्ट हो जायेगी। जो साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं बन सकती है। अतः शुभ-आशय पूर्वक की गई क्रिया ही भावयोग बनती है। इसीलिए 'षोडशक' प्रकरण में आचार्य हरिभद्रसूरि ने उसे ही तात्त्विक योग कहा है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V षष्ठम् अध्याय 418 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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