________________ उससे तो हम अच्छे हैं' ऐसा कहकर मान को धारण करते है / विधि मार्ग की उपेक्षा करते है। तथा वे दूसरों की बुद्धि में भी यह अविधि ही विधि होगी ऐसी भ्रमणा उत्पन्न करते हुए अविधि की ही परम्परा चलानेवाले बनने से मूल सूत्र और अर्थ दोनों के उच्छेदक होने से शासन के वास्तव में विडंबक जीव है ये जीव विधि निरपेक्ष अविधि करनेवाले जानना। इन दोनों जीवों में बहुत अंतर है, एक का हृदय भाव परिणति युक्त होने से आराधक बनता है और दूसरे का हृदय भाव परिणति से शून्य तथा मानादि कषाय का पोषक और उन्मार्ग का प्रचारक होने से विराधक है। अविधि का आचरण करने वाले दोनों जीव अंतर परिणति के भेद नहीं जानने वाले जीव को यह संदेह होता है कि - जो अविधि से भी धर्मानुष्ठान होता है यह मार्ग यदि आप नहीं स्वीकारेंगे तो विधिपूर्वक धर्म आराधना करनेवाले जीव दो-चार परिमित होने से तथा कालान्तर में उनका भी अभाव होने से तीर्थ का उच्छेद हो जायेगा। उससे मनचाही अविधि करे तो भी चला लेना चाहिए। जिससे भगवान के द्वारा कहा हुआ शासन पंचम आरे के अंतिम तक टिक सके। अर्थात् तीर्थ के अनुच्छेद के लिए अविधिवाला धर्मानुष्ठान भी चला लेना चाहिए। ऐसी उक्ति जो अविधि-रसिक जीव देते है वह युक्तियुक्त नहीं है। कारण कि अविधिपूर्वक अनुष्ठान करने पर जिसको जैसा योग्य लगे वैसा अनुष्ठान करने लग जायेंगे। इस प्रकार भिन्न-भिन्न आचरणा को चलाने से शास्त्र में कहा हुआ जो मूल मार्ग उसको अन्यथा करने से तथा अशुद्ध मार्ग की परम्परा प्रवृत्त होने से तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्ररूपित मूलसूत्र और उसका अनुसरण करनेवाली क्रिया का विनाश होगा और वास्तव में तो वही सत्य तीर्थोच्छेद है। तीर्थ का अर्थ उपाध्याय यशोविजयजी म. टीका में इस प्रकार करते है - तीर्थ अर्थात् सूत्र और सूत्रोक्त क्रिया। जो इस मूल मार्ग का विच्छेद हो जायेगा तो असंमजस आचरण वाले जन समूह से तीर्थ कैसे चलेगा। जन-समूह वह तीर्थ नहीं है। कारण कि जिनेश्वर की आज्ञा से रहित जन समुदाय तो ‘अस्थि का माला' कहा गया है। किन्तु परमात्मा की आज्ञा शिरोधार्य करनेवाले साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को यहाँ तीर्थ स्वरूप में स्वीकारा गया है। 9 / / एगो साहू एगा य साहुणी सावओवि सड्डी वा। आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अट्ठिसंघाओ॥ संबोध सित्तरि में कहा है कि परमात्मा की आज्ञा को शिरोधार्य करनेवाला एक साधु-एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका रूप भी चतुर्विध संघ कहलाता है। शेष तो 'अस्थियों का समूह है'। और ऐसा एक भी जीव हो तो वह तीर्थ की उन्नति करता है। लेकिन तीर्थ उच्छेद नहीं होता है। किन्तु अविधि की आचरणा में ही तीर्थ उच्छेद है। ___ आचार्य हरिभद्र सूरि तो यहाँ तक कहते है कि अविधि की प्ररूपणा करने में भी दोष है, इतना ही नहीं लेकिन उपदेशक शब्दों से अविधि की प्ररूपणा नहीं करता है, लेकिन पंचम काल में विधि का पालन अशक्य [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V षष्ठम् अध्याय | 417 ]