________________ के व्यापार से होते थे और अभी असंगानुष्ठान समय में भिक्षाटनादि धर्मानुष्ठान मात्र पूर्व में पुनः पुनः अनुभव किये हुए अनुष्ठानों से उत्पन्न संस्कारों से सहजरूप में प्रवर्तमान होते है। इन दोनों अनुष्ठानों में इतना अंतर है। .. तथा इसमें अंतिम जो असंगानुष्ठान वह तो अनालंबन योग स्वरूप है। इस प्रकार जो अनुष्ठान सद्-अनुष्ठान के लक्षणों अर्थात् भावों के साथ किया जाता है वह सदनुष्ठान योग का हेतु बनता है। वही मुक्ति का परम कारण है। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने अन्य अनुष्ठानों की अपेक्षा सदनुष्ठान में ही योग की सार्थकता सिद्ध की है। जो पारमार्थिक रूप से सत्य है। ___ असदनुष्ठान में तीर्थ-विच्छेद - आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने योग ग्रन्थों में सदनुष्ठान में योग की सार्थकता सिद्ध की है। क्योंकि कोई भी अनुष्ठान श्रद्धा-बहुमानभाव-प्रेम तथा विधिपूर्वक एवं आशयशुद्धि पूर्वक करते है। तब वह सदनुष्ठान बनकर योग का हेतु बनता है और तीर्थ-उन्नति एवं मोक्ष का साधक बनता है। लेकिन साथ में उन्होंने अपने चिंतन में यह बताया कि यदि हम श्रद्धा बहुमानभाव अविधिपूर्वक कुछ भी धर्मानुष्ठान करेंगे तो वह सद्-अनुष्ठान नहीं हो सकता है। इससे भी आगे बढकर यहाँ तक कह दिया कि उससे तीर्थ-विच्छेद भी हो जाता है। जैसा कि योगविंशिका में स्पष्ट कहा है - तित्थस्सुच्छेयाइ वि नालंबणमित्थ जं स एमेव। सुत्तकिरियाइ नासो एसो असमंजसविहाणा॥७८ अविधि से अनुष्ठान यदि कोई कर रहा हो तो उसे चला लेना चाहिए, नहीं तो 'तीर्थ का उच्छेद हो जायेगा' इत्यादि उक्तियाँ भी अविधि अनुष्ठान चलाने में आलंबन रूप नहीं है। कारण कि वैसा करने से अस्त- . व्यस्त विधान करने से सूत्रानुसारी क्रिया का नाश होता है और वही पारमार्थिक रूप से तीर्थोच्छेद है। अविधि से धर्मानुष्ठान करने वाले जीव दो प्रकार के है - (1) विधि सापेक्ष (2) विधि निरपेक्ष (1) विधि सापेक्ष - जिन महात्माओं को यह धर्म रुचिगम्य लगता है। तीर्थंकरों के प्रति उनके शासन के प्रति अनन्य राग है, बहुमान भाव है। शास्त्रों में निर्दिष्ट विधि से धर्मानुष्ठान करने की उत्कट भावना है। विधि पूर्वक क्रिया करने वालों के प्रति पूज्यभाव है, परन्तु शरीर संघयण बल-संयोगबल सानुकूल न होने से विधिपूर्वक धर्मानुष्ठान नहीं होता है अतिचार हो जाता है, तथा उसकी विशुद्धि करने की पूरी तमन्ना होती है। ऐसे जीव विधि सापेक्ष अविधिकर्तृक कहे जाते है। ऐसे जीव अविधि से भी धर्मानुष्ठान करे तो भी सद्गुरु का संयोग हो जाते, विधि समझते शारीरिक बल अनुकूल होते ही विधि मार्ग में आ जाते है, कारण कि उनको विधि की सम्पूर्ण रूप से अपेक्षा है, तथा अविधि की परंपरा चलाते नहीं है। शायद प्रतिकूल संयोग में स्वयं अविधि का आचरण हो भी जाय तो भी दूसरों को अविधि का उपदेश नहीं देते है। मूल-सूत्र अर्थ और उसकी परम्परा अखंड रखते है। उसका उच्छेद नहीं होने देते है। अतः योग्य है। परन्तु जो जीव अविधि से धर्मानुष्ठान करते है, विधि का उच्छेद करते है। सूत्र और अर्थ का नाश करके भी स्वयं की अविधि को विधि बताते है। चलती प्रणालिका का उच्छेद करते है। “जो जीव कुछ भी नहीं करते | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII IMA षष्ठम् अध्याय 416 )