________________ उस जीव को ‘परम प्रीति' उत्पन्न होती है। परम प्रीति होने से संसार के दूसरे कार्यों को छोड़कर जब भी समय मिलता हैं तब दौड़-दौड़ कर धर्मानुष्ठान में यह जीव जुड़ जाता है। जिस प्रकार नाटक, सरकस, टी.वी आदि देखने में राग होने से दूसरा सभी छोड़कर वहाँ चला जाता है / उसी प्रकार धर्मकार्यों में आत्मा ओत-प्रोत बन जाता है वही प्रीति अनुष्ठान है। (2) भक्ति अनुष्ठान - प्रीति अनुष्ठान के समान तुल्य आचार वाला है, परन्तु प्रीति अनुष्ठान के समय मोक्ष के राग से उसके उपायभूत धर्मानुष्ठानों के प्रति भी राग-विशेष होने से धर्मानुष्ठान करने में परम प्रीति होती है। परंतु जैसे-जैसे धर्म गुरु का योग मिलता जाय वैसे-वैसे तत्त्व समझता है। यह धर्मानुष्ठान ही संसार तारक है, आदरणीय है, सेवनीय है / ऐसा समझने से उन-उन अनुष्ठानों के प्रति पूज्यत्व की बुद्धि विशेष प्रगट होती जाती है। उससे पूज्यत्व की बुद्धिपूर्वक अधिक से अधिक विशुद्धतर ऐसा व्यवहार क्रिया बढ़ती जाती है। वह भक्ति अनुष्ठान कहलाता है। दोनों अनुष्ठान बाह्य आचरण से तुल्य दिखने पर भी अंतरंग आत्म परिणाम से भिन्न है। प्रीति अनुष्ठान से भक्ति अनुष्ठान अधिक-अधिक विशुद्धतर अंतरंग परिणतिवाला होता है। ___षोडशक' में आचार्य हरिभद्रसूरि व्यवहारिक दृष्टांत देकर उपरोक्त अनुष्ठान में बाह्य तुल्यता एवं अंतर परिणति की भिन्नता को बताते है। अत्यन्तवल्लभा खलु, पत्नी तद्वद्धिता च जननीति / तुल्यमपि कृत्यमनयोतिं स्यात्प्रीतिभक्तिगम् / / 76 - पत्नी निश्चित अत्यंत वल्लभ होती है और माता भी उसी के समान प्रीति का पात्र है। फिर भी यह 'मेरी माता मेरा हित करने वाली है ऐसा भी मन में होता है / दोनों के लिए खाना-पीना-वेशभूषा आदि देने का कृत्य समान होता है। परंतु अंतरंग परिणाम एक के प्रति प्रीति का दूसरे के प्रति भक्ति का (पूज्यत्व) होता है। इसी प्रकार प्रीति-भक्ति अनुष्ठान को भी जानना। (3) वचनानुष्ठान - शास्त्रार्थ के प्रतिसंधान पूर्वक सभी स्थानों पर चारित्रवान् आत्मा की जो उचित प्रवृत्ति वह वचनानुष्ठान कहलाता है। (4) असंग अनुष्ठान - क्रिया-प्रवृत्ति के समय शास्त्रों के वचनों की परवशता से निरपेक्ष अत्यंत दृढतर संस्कार के बल से चन्दन-गन्ध के न्याय से स्वयं को आत्मसात् बना हुआ। जिनकल्पिकादि मुनिओं का जो क्रिया-सेवन वह असंगानुष्ठान कहलाता है। यह असंगानुष्ठान वचनानुष्ठान के संस्कार से होता है। इसको एक दृष्टांत देकर आचार्य हरिभद्रसूरि 'षोडशक' में समझाते हुए कहते है कि घट बनाते समय दंड का संयोग होता है वहाँ तक दंड के संयोग से तो चक्र-भम्रण होता ही है। परंतु दंड लेने के पश्चात् भी उसके उत्तरकाल में पूर्वभ्रमण से उत्पन्न हुए चक्र भ्रमण के संस्कार से दंड बिना भी चक्र-भ्रमण होता है। उसी प्रकार भिक्षाटनादि विषयक धर्मानुष्ठान प्रथम जो थे वे वचनानुष्ठान | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIN A षष्ठम् अध्याय [ 415