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________________ क्योंकि उस अनुष्ठानों में प्रायः ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप सम्यग् योग का अभाव है। यह दूसरा अनुष्ठान शुभ आचार रूप होने से व्यवहार से शुद्ध अनुष्ठान रूप कहा है। ___ जिसमें तत्त्व का यथा स्वरूप ज्ञान हो, मन-वचन-काया शांत प्रवृत्ति वाले हो, अत्यन्त उत्सुकता न हो ऐसा बनकर यम-नियम पाले वह तीसरा अनुष्ठान है। ___ इन तीनों अनुष्ठान में से तीसरे शुद्ध अनुष्ठान से दोषों का नाश होता है। क्योंकि उसमें मन की शुद्धता है। कुछ दर्शनकार अंतर की शुद्धिवाले अनुष्ठान को गृह-निर्माण के लिए प्रथम भूमि की शुद्धता समान मानते है। इस प्रकार दृढ श्रद्धा और ज्ञान युक्त अनुष्ठान का महान् फल प्राप्त होता है और वही अनुष्ठान योगरूप होने से मोक्ष-मार्ग में गमन करनेवाला बनता है।७२ __ आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगविंशिका' में चैत्यवंदनादि अनुष्ठानों को भी सद्-अनुष्ठानों के अन्तर्गत गिना है। यदि वह मोक्ष का साधक बनता हो तो इसका विवेचन इस प्रकार किया है - ठाणाइसु जत्तसंगयाणं तु। हियमेयं विन्नेयं, सदणुट्ठाणत्तणेण तहा // 73 स्थानादि योगों में प्रयत्नवाले महात्माओं का चैत्यवंदन अनुष्ठान परंपरा से मोक्ष का हेतु बनता है तथा उत्तम अनुष्ठान होने से अनन्तर रूप में भी हितकारी (मोक्षहेतु) बनता है। ‘योगविंशिका टीका' में उपाध्याय यशोविजयजी म. ने भी इस बात को विशेष स्पष्ट की है कि प्रणिधान प्रवृत्ति आदि आशय की उपेक्षा करके गतानुगतिक अथवा मान-सम्मान को बढ़ाने बाह्य से धर्मानुष्ठान करते है वह धर्मानुष्ठान मोक्ष साधक नहीं बनता है, परंतु जो धर्मानुष्ठान प्रणिधानादि आशय पूर्वक और स्थानादि योग के उपयोग पूर्वक किया जाता है वही मोक्ष साधक बनता है। उसमें भी सूक्ष्म निरीक्षण, चिन्तन करते है तो आचरण किये जाते धर्मानुष्ठान में रहे हुए जो स्थानादि योगों का सेवन है वही निश्चित मोक्ष हेतु है। तथापि स्थानादि योग मोक्ष हेतु होने से उस योगवाला धर्मानुष्ठान भी मोक्ष हेतु कहलाता है। अनन्तर रूप से योग मोक्षहेतु है और परंपरा से धर्मानुष्ठान भी मोक्ष हेतु है। तथा चैत्यवंदन धर्मानुष्ठान यह उत्तम अनुष्ठान होने से स्वतंत्र रूप से भी मोक्ष का हेतु है। कारण कि योग के परिणाम से किये हुए पुण्यानुबंधी पुण्य का निक्षेप होने से निर्मल चित्त के संस्कार रूप प्रशान्तवाहिता से युक्त ऐसे यह चैत्यवंदनादि अनुष्ठान स्वतंत्र रूप से भी मोक्षहेतु है। इसमें नयभेद ही कारण है।७४ __उत्तमानुष्ठान प्रीति-भक्ति-आगम अर्थात् शास्त्र वचन का अनुसरण करनेवाला तथा असंगतायुक्त चार प्रकार के है। उसमें यह असंग अनुष्ठान ही चरम योग है।७५ (1) प्रीति अनुष्ठान - जिस आत्मा को संसार निर्गुण भासित होता है उसी को आत्मा की भवातीत अवस्था के प्रति और उसके उपायभूत धर्मानुष्ठानों के प्रति रुचि जागृत होती है। उसके लिए वह आत्मा अतिशय प्रयत्न विशेष करता है। उससे जैसे-जैसे संसार का राग घटता जाता है और मोक्ष का राग बढ़ता जाता है। अतः / | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII VIA षष्ठम् अध्याय | 414]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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