________________ अथवा संख्याता भव में ही जन्म-मरण का नाम करनेवाले हो वैसे जीवात्माओं की देव पूजा, गुरु-भक्ति, व्रतपच्चक्खाण आदि सभी धर्मानुष्ठान मुक्ति के लिए होने से मुक्ति रूप ही जानना।७५ - तद्धेतु अनुष्ठान एवं अमृत अनुष्ठान योग के हेतु बनने से वह अनुष्ठान योग कहलाता है। उसमें मुख्य रीति से पूर्व सेवामें सिद्धि प्राप्त होने पर सभी योगों का क्रमिक प्रकाश होता है। योग में प्रथम तीन प्रकार की शुद्धि से युक्त ऐसा क्रियामय अनुष्ठान करना तथा सम्यग् शास्त्रों की आज्ञा के आधीन रहना। अर्थात् वैसे शास्त्र गुरु के पास विनय पूर्वक पढ़कर, उन शास्त्रों की आज्ञा पूर्वक वर्तन करना, तथा सम्यक् प्रकार से आत्मा की शुद्धि तथा देव-गुरु की शुद्धि विचारना, लिंग, शुद्धि अर्थात् साधुओं के वेष, आचार, प्रवृत्ति की शुद्धि भी समझना, कारण कि वैसी विधि का ज्ञान होने पर ही योग में शुद्धता पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले आत्मा धार्मिक जानना। उनकी अनुष्ठान में जो प्रवृत्ति होती है उसको योग कहते है। ____ अनुष्ठान तीन प्रकार से शुद्ध होता है। (1) विषय से शुद्ध (2) स्वरूप से शुद्ध (3) अनुबन्ध से शुद्धइन तीन से युक्त अनुष्ठानों को करनेवाला आत्मा मोक्ष का अर्थी कहलाता है। (1) विषय से शुद्ध - पाँच इन्द्रिय तथा मन से जगत के अनुभव किये हुए पदार्थों के प्रति ममत्व, भोग की अभिलाषा और वैसे पदार्थों के संग्रह से आत्मा आर्त तथा रौद्र ध्यान के द्वारा अनेक प्रकार के कर्म बांधकर अनेक दुःख के भोग का हेतु बनता है। ऐसी वैराग्य भावना से भोग को छोडने की प्रवृत्ति करना वह विषयशुद्ध कहलाता है। तथा अरिहंत परमात्मा ने जिस तत्त्व का उपदेश दिया है वे धर्मशास्त्रों तथा देवगुरु में श्रद्धा रखना, मोक्ष के लिए काया से प्रवृत्तिं करना, आदर सत्कार करना - वह वचन शुद्धता / इस प्रकार मन-वचन-काया की शुद्धता रखनी वह अपुर्नबन्धक जीवों का विषय जानना। - (2) स्वरूप से शुद्ध - बोध जिसमें है वह आत्मा और उसका स्वरूप अथवा लक्षण ज्ञान-दर्शनचारित्र रूप चैतन्य जानना। (3) अनुबंध से शुद्ध - वस्तु स्वरूप के बोध से अंतर में परिणाम की शुद्धता उत्पन्न होती है। वह आत्मा का स्वभाव, उस स्वभाव के बल से आत्मा के शुद्ध परिणाम की परम्परा से तद्हेतु और अमृत अनुष्ठान का अनुबंध रूप फल विशेष होता है। अतः अनुबंध शुद्ध कहलाता है। ये तीन प्रकार की शुद्धता आत्मा को पाप से रहित बनाती है। और परम्परा से मुक्ति की साधक बनती है। इस प्रकार शुद्धता वाले अनुष्ठान तीन प्रकार के है। (1) प्रथम मुक्ति के लिए किये जाते सदनुष्ठान से प्रयत्न करनेवाले के कदाचित् अनादि काल के मोह के अशुभ संस्कारवाले कर्म के उदय से पतन हो जाता है तो भी मुक्ति भाव की उपादेयता का अंश होने से शुभ है ऐसा मानना, अथवा मुक्ति को ध्येय में रखकर प्राणनाश हो ऐसा आपघात, भृगुपात, आतापना, फांसी, मरणांत तप करना रूप मरण भी शुभ भाव से युक्त होने से प्रथम अनुष्ठान रूप में शुभ गिना है। यम-नियम-आसन आदि केवल लौकिक दृष्टि से व्यवस्थित किए हुए परन्तु शास्त्र संमत नहीं है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIII षष्ठम् अध्याय | 413 )