________________ विषय में स्पष्टीकरण नहीं किया है। आठ दृष्टियों का स्वरूप इस प्रकार है - मित्रा तारा बला दीप्रा, स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीनां, लक्षणं च निबोधत // 88 / मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा ये योग की आठ दृष्टियों का आठ नाम यथार्थ है। (1) मित्रा दृष्टि - मुक्ति मार्ग का प्रारंभ मोक्ष के प्रति अद्वेष भाव से प्रारंभ होता है। अल्पांश भी मुक्ति का अद्वेष प्रकट होता है, तब योग की दृष्टि प्रारंभ होती है। उसमें प्रथमदृष्टि को मित्रादृष्टि कहते है। आत्मा के आध्यात्मिक आत्महित के विकास का प्रथम सोपान है या अल्पज्ञान स्वरूप है। इसकी तुलना घास की अग्नि के अंगारों के प्रकाश से की जाती है। अर्थात् इस दृष्टिकाल में ज्ञान-बोध होता है, वह तृणाग्निकण समान होता है। इसमें आत्महित की चिंता स्फुरायमान होने से धर्म के कार्यों में खेद परिश्रम नहीं लगता है, उन-उन कार्यों में सतत वीर्योल्लास बढ़ता रहता है। इसमें साधक योग बीजों का संग्रह करता है। ये योगबीज निःशंकतया मोक्ष के कारण है - तीर्थंकरों के सम्बन्ध में उच्च श्रेणी की मानसिक अवस्था का विकास करना, उनकी प्रार्थना, भक्ति, वंदन आदि करना, श्रद्धा, प्रीति, विश्वास रखना, काया से संशुद्ध प्रणाम करना। ये प्रमुख योगबीज है। साधक आत्मा पर मिथ्यात्व का, अज्ञान का प्रभाव होने पर भी मिथ्यात्व की मंदता के कारण योग प्राप्ति की योग्यता बढ़ती जाती है। धार्मिक विधियाँ उस अवधि में उत्तरोत्तर शुद्ध होती जाती है। आहारादि संज्ञाएँ, क्रोधादि कषाय आदि निग्रह करने में प्रयत्नशील रहता है। ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा पर विजय प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध रहता है। ऐसा साधक आगे बढ़कर और भी अवशिष्ट योगबीजों का संग्रह करता है। वे योगबीन है - धर्मगुरुओं की परम सेवा, संसार के प्रति अंतरंग परिणति पूर्वक सहज वैराग्य, द्रव्य से अभिग्रहों का धारण करना, पूजन, श्रवण, धर्मशास्त्रों के प्रति हार्दिक बहुमान, प्रेम उनको प्रकाशित करना / इस प्रकार अधिकाधिक योगबीजों का संग्रह करता है।९ इस अवस्था में नियमों का पालन होता है। आध्यात्मिक पात्रता के लिए महर्षि पतञ्जलि ने यम को आद्य क्रम में रखा है, पतञ्जली योग के समान आचार्य हरिभद्र सूरि ने भी पाँच तरह के यमों का वर्णन किया है। जैसे - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और संयम। आचार्य हरिभद्रसूरिने आगे इस प्रत्येक यम की चारचार अवस्थाएँ बताई है। (1) इच्छायम - इस अवस्था में साधक योग पालन की इच्छा दर्शाता है। योगी महात्मा पुरुषों की कथा सुनने में अतिशय रस होता है। बहुमान भाव से कथाओं को सुनता है, और कठिन लगनेवाली यमविषयक में रुचि लेता है। (2) प्रवृत्तियम - सामान्य से सभी स्थानों पर उपशमभाव प्रधान पाँच यमों का पालन वही प्रवृत्तियम. कहलाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VAINIK षष्ठम् अध्याय